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THE HOLY TOUR & TRAVEL OF TEMPLES IN INDIA

Category: धर्म कथा

धर्म का सारा साहित्य, वेद, पुराण, श्रुति, स्मृतियाँ, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता

What we should not do while worship of Lord Shiva

Posted on July 31, 2021August 8, 2021 By Pradeep Sharma

भगवान् शिव की पूजा के समय क्या ना करे –

प्रिय पाठको हम सभी भगवान शिव की पूजा करते समय अक्सर कुछ गलतियां कर देते है | आज हम लेख के माध्यम से आप सभी को उन्ही गलतियों से अवगत कराने जा रहे है जो हमें भूलकर भी नहीं करनी है |

  1. प्रिय पाठको कभी भी तांबे के लोटे या बर्तन में दूध ना डालें । दूध हमेशा स्टील, पीतल या चांदी के पात्र में ही डालें । तांबे में दूध डालने से वह दूध संक्रमित हो जाता है और सड़ जाता है ।
  2. शिवलिंग पर दूध, दही, शहद या कोई भी वस्तु चढ़ाने के बाद जल अवश्य चढ़ाएं । स्नान तभी पूर्ण होता है जब हमारी चढ़ाई वस्तु जल से पूरी तरह साफ कर दें ।

3.बहुत से लोग शिवलिंग पर ही धूप या अगरबत्ती लगा देते हैं जोकि गलत है और यह दुष्कृत्य कहलाता है । उससे शिवलिंग पर गर्म राख गिरती है जिससे बचाव करना चाहिए ।

  1. शिवलिंग के ऊपर रखे कलश में कभी भी दूध ना डालें । उसमे सिर्फ साफ जल ही डालें ताकि शिवलिंग पर साफ जल चढ़ता रहे और स्नान होता रहे । सिर्फ रुद्राभिषेक के समय ही कलश में दूध डाल सकते हैं ।

5.शिवलिंग पर कभी भी सिंदूर या रोली से टीका ना लगाएं । शिवलिंग पर सिर्फ चंदन का तिलक करें ।

  1. कुछ लोग शिवलिंग पर ही रुपए चढ़ा देते हैं जो अनुचित है और गलत है । रुपए की आवश्यकता भगवान को नहीं बल्कि मंदिर के कार्यों के लिए होती है । इसलिए कोशिश करें की हमेशा दान पात्र में ही रुपए डालें ।

7.कभी भी शिवलिंग की पूरी परिक्रमा ना करें । जिधर से जल बहता है उधर तक जाएं और वापस घूम जाएं ।

  1. दीपक या धूप आदि शिवलिंग व मूर्तियों से थोड़ा दूरी पर रखें अन्यथा उसके धुएं से मूर्तियां काली पड़ जाती हैं ।
  2. इसके अलावा बहुत से लोग विशेषकर महिलाएं मंदिरों में भगवान की मूर्ति के आगे लगें शीशे पर ही तिलक या भोग लगा देती हैं जिससे सारा शीशा धुंधला पड़ जाता है और भगवान के दर्शन अच्छे से नहीं हो पाते । इससे बचें और अगर करना ही है तो तिलक हमेशा भगवान के चरणों में ही करें ।

10.कोशिश करें कि मंदिर में ज्यादा से ज्यादा साफ सफाई का ध्यान रखें और अपनी तरफ से कोई भी गंदगी ना फैला। 

आशा करता हूँ आप सभी शिव उपासना के समय इन सभी बातो का ध्यान अवश्य रखेंगे |

धर्म कथा

मंदिर में देवी या देवता कि परिक्रमा केसे कितनी और क्यों करे

Posted on June 27, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

परिक्रमा “क्यों और केसे व् कितनी करे ?

जब हम मंदिर जाते है तो हम भगवान की परिक्रमा जरुर लगाते है, पर क्या कभी हमने ये सोचा है कि देव मूर्ति अर्थात देव विग्रह की परिक्रमा क्यो की जाती है? शास्त्रों में लिखा है कि जिस स्थान पर मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई हो, उसके मध्य बिंदु से लेकर कुछ दूरी तक दिव्य प्रभा अथवा प्रभाव (जिसे उर्जा कहा जा सकता है) रहता है, यह निकट होने पर अधिक गहरा और दूर-दूर होने पर घटता जाता है, इसलिए प्रतिमा के निकट परिक्रमा करने से दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल से निकलने वाले तेज की सहज ही प्राप्ती हो जाती है।

भगवान की या देवता की परिक्रमा कैसे करे ?

देवमूर्ति की परिक्रमा सदैव दाएं हाथ की ओर से करनी चाहिए क्योकि दैवीय शक्ति की आभामंडल की गति दक्षिणावर्ती होती है। बाएं हाथ की ओर से परिक्रमा करने पर दैवीय शक्ति के ज्योतिर्मडल की गति और हमारे अंदर विद्यमान दिव्य परमाणुओं में टकराव पैदा होता है, जिससे हमारा तेज नष्ट हो जाता है, जाने-अनजाने की गई उल्टी परिक्रमा का दुष्परिणाम भुगतना पडता है।

अमुक देवता अथवा देवी की कितनी परिक्रमा करनी चाहिये..?

वैसे तो सामान्यत सभी देवी-देवताओं की एक ही परिक्रमा की जाती है परंतु शास्त्रों के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं के लिए परिक्रमा की अलग संख्या निर्धारित की गई है। इस संबंध में धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान की परिक्रमा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और इससे हमारे पाप नष्ट होते है, सभी देवताओं की परिक्रमा के संबंध में अलग-अलग नियम बताए गए हैं।

  1. 1. महिलाओं द्वारा “वटवृक्ष” की परिक्रमा करना सौभाग्य का सूचक है।
  2. 2. शिवजी” की आधी परिक्रमा की जाती है, शिवजी की परिक्रमा करने से बुरे खयालात और अनर्गल स्वप्नों का खात्मा होता है। भगवान शिव की परिक्रमा करते समय अभिषेक की धार को न लांघे।
  3. 3. देवी मां” की एक परिक्रमा की जानी चाहिए।
  4. 4. श्री गणेशजी और हनुमानजी” की तीन परिक्रमा करने का विधान है, गणेश जी की परिक्रमा करने से अपनी सोची हुई कई अतृप्त कामनाओं की तृप्ति होती है, गणेशजी के विराट स्वरूप व मंत्र का विधिवत ध्यान करने पर कार्य सिद्ध होने लगते हैं।
  5. 5. भगवान विष्णुजी” एवं उनके सभी अवतारों की चार परिक्रमा करनी चाहिए, विष्णु जी की परिक्रमा करने से हृदय परिपुष्ट और संकल्प ऊर्जावान बनकर सकारात्मक सोच की वृद्धि करते हैं।
  6. 6. सूर्य मंदिर की सात परिक्रमा करने से मन पवित्र और आनंद से भर उठता है तथा बुरे और कड़वे विचारों का विनाश होकर श्रेष्ठ विचार पोषित होते हैं, हमें भास्कराय मंत्र का भी उच्चारण करना चाहिए, जो कई रोगों का नाशक है जैसे सूर्य को अर्घ्य देकर “ॐ भास्कराय नमः” का जाप करना देवी के मंदिर में महज एक परिक्रमा कर नवार्ण मंत्र का ध्यान जरूरी है, इससे सँजोए गए संकल्प और लक्ष्य सकारात्मक रूप लेते हैं।

 

परिक्रमा के संबंध में नियम

  1. परिक्रमा शुरु करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए, साथ परिक्रमा वहीं खत्म करें जहां से शुरु की गई थी। ध्यान रखें कि परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नही मानी जाती ।
  2. परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत कतई ना करें, जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें।
  3. उलटी अर्थात बाये हाथ की तरफ परिक्रमा नहीं करनी चाहिये।

इस प्रकार देवी-देवताओं की परिक्रमा विधिवत करने से जीवन में हो रही उथल-पुथल व समस्याओं का समाधान सहज ही हो जाता है, इस प्रकार सही परिक्रमा करने से पूर्ण लाभ की प्राप्ती होती है ।

जय जगत जननी जगदम्बा श्री भवानी अरसुर वाली जय अम्बे जय सियाराम जय शंकर जय गोमाता

 

धर्म कथा

Sanatan Dharm me Purano ke naam

Posted on June 26, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

सनातन धर्म में पुराणों के नाम

1. ब्रह्म-पुराण
2. पद्म-पुराण
3. विष्णु-पुराण
4. शिव-पुराण (वायुपुराण)
5. श्रीमाद्भाग्वात्पुराण
6. नारदीय-पुराण
7. मार्कंडेय-पुराण
8.अग्नि-पुराण
9. भविष्य-पुराण
10. ब्रह्मवैवर्त-पुराण
11. लिंग-पुराण
12. वाराह-पुराण
13.स्कन्द-पुराण
14.वामन-पुराण
15.कूर्म-पुराण
16.मत्स्य-पुराण
17.गरुड़-पुराण
18. ब्रह्माण्ड-पुराण

धर्म कथा

Fast and Festivals in July 2021

Posted on June 26, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

जुलाई 2021, के व्रत एवं त्यौहार

01 July, Thu 2021 कालाष्टमी
03 July, Sat 2021 संत थॉमस डे
05 July, Mon 2021 योगिनी एकादशी
07 July, Wed 2021 प्रदोष व्रत , रोहिणी व्रत
08 July, Thu 2021 मास शिवरात्रि
09 July, Fri 2021 अमावस्या
11 July, Sun 2021 जनसंख्या दिवस , चंद्र दर्शन
12 July, Mon 2021 पूरी जगन्नाथ रथ यात्रा , सोमवार व्रत
13 July, Tue 2021 वरद चतुर्थी
15 July, Thu 2021 षष्टी , कौमार षष्ठी
16 July, Fri 2021 कर्क संक्रांति
17 July, Sat 2021 दुर्गाष्टमी व्रत
20 July, Tue 2021 आषाढ़ी एकादशी
21 July, Wed 2021 जाया पार्वती व्रत प्रारंभ , बकरीद (ईद-उल-अज़हा) , प्रदोष व्रत
23 July, Fri 2021 पूर्णिमा व्रत , सत्य व्रत , सत्य व्रत
24 July, Sat 2021 गुरु पूर्णिमा , पूर्णिमा , कांवड़ यात्रा , व्यास पूजा
25 July, Sun 2021 जाया पारवती व्रत जागरण
26 July, Mon 2021 जाया पार्वती व्रत समाप्त
27 July, Tue 2021 संकष्टी गणेश चतुर्थी , अंगारकी चतुर्थी
31 July, Sat 2021 कालाष्टमी

ज्योतिष विज्ञान, धर्म कथा, हिन्दू व्रत एवं त्यौहार

Disposal of Karma

Posted on June 5, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

कर्म कि गती (कर्म का निपटान)

वह कौन से कर्म है जो हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते ?

  1. अबोधता एवं अज्ञानता की स्थिति में किए गए कर्म
  2. अचेतन अवस्था में किए गए कर्म
  3. मनुष्य को छोड़कर अन्य योनियों में किए गए कर्म
  4. मैं करता हूं के अभिमान को छोड़कर किए गए कर कर्म
  5. सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म
  6. निष्काम भावना से किए गए कर्म
  • अबोधता, अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए कर्म

बाल्यावस्था में किए गए कर्म और अचेतन अवस्था में किए गए कर्म या पागलपन में किए गए कर्म, राग द्वेष की प्रेरणा से नहीं किए गए थे अतः राग द्वेष की प्रेरणा के बिना इन कर्मों को संचित कर्मों में जमा नहीं होना पड़ता। यदि कोई छोटा बच्चा अग्नि में हाथ डाले तो वह जलेगा जरूर और कर्म तात्कालिक फल देगा। किंतु यही कर्म घूम कर वापस उसके संचित कर्मों में जमा नहीं होगा और दूसरी बार फल देने के लिए सामने नहीं आएगा।  3 वर्ष का छोटा बच्चा खाट में उछलता है, कूदता है और वहीं पर 3 वर्ष का अन्य बच्चा सो रहा है, यदि उसके गले पर उछलते हुए बच्चे का पांव लग जाए और वह बच्चा मर जाए तो उस 3 वर्ष के बच्चे पर इंडियन पेनल कोड की धारा 302 के मुताबिक हत्या का केस नहीं चल सकता, क्योंकि इस कर्म में कोई राग द्वेष नहीं था अतः इस प्रकार के कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते अतः शिशु अवस्था में किसी बच्चे ने किसी दस्तावेज पर कोई काम किया हो तो उसे कोर्ट मान्य नहीं करती।

मित्रों यहां ध्यान देने की बात है की अबोधता,अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए सभी क्रियामान कर्मों का तात्कालिक फल जरूर होता है। किंतु यह संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यह कर्म भविष्य में फल देने हेतु सामने प्रस्तुत नहीं होते बल्कि इनका जो भी परिणाम होता है वह तुरंत प्रभाव से हमें मिल जाता है। 

अर्थात मनुष्य का कोई भी ऐसा कर्म जो किसी प्रकार की राग द्वेष शक्ति इच्छा की भावना से जुड़ा हो वह कर्म संचित कर्म में संचित हो सकता है। वह भविष्य में फल देने के लिए आपके सामने प्रस्तुत हो सकता है।

  • मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनि में किए गए कर्म

मनुष्य योनि के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में किए गए कोई भी कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते क्योंकि मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य तमाम योनीया भोग योनीया कहलाती है।मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में जीवात्मा अपने पूर्व संचित कर्मों को प्रारब्ध के रूप में भोग करके ही देह से छुटकारा पाती हैं।अतः इनके कोई भी नए क्रियामान कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

घोड़े, गधे, कुत्ते, बिल्ली, पशु-पक्षी, इत्यादि योनियों में जीव मात्र प्रकृति के अनुसार ही अपना जीवन जीते हैं इससे यह अपनी योनियों, में केवल और केवल प्रारब्ध कर्म को ही भोगते है।और इस प्रकार की योनियों में क्रिया मानकर्म तात्कालिक फल देते हैं।इससे यह बाद में संचित कर्म में जमा नहीं होते।उदाहरण स्वरूप गधा यदि किसी को लात मारे तो बदले में वह दो लकड़ी की फटकार खा लेता है ऐसा नहीं होता कि उसकी यह लात मारने की क्रिया संचित कर्मों में जमा हो जाएगी।यदि किसी खेत में पशु प्रवेश कर जाता है और फसल को नुकसान करता है तो बदले में खेत का मालिक उस पशु को लकड़ी से पीटकर भगा देता है पशु का खेत में प्रवेश करना जो कर्म है उसका तात्कालिक फल वह पा लेता है अतः उसका कोई भी कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होता। पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा मछली जलचर नभचर और कई प्रकार के जीव भोगयोनि ही कहलाते हैं।अतः इनके नए क्रियामान कर्म कभी भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।देव योनी भी एक प्रकार से भोग योनि ही है।देवता भी स्वयं के पुण्य कर्मों के आधार पर सुख भोगते हैं। देवताओं के क्रियामान कर्म भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।जिनके तमाम पाप नष्ट हो चुके हैं और जिनके सिलक में  मात्र पुण्य कर्म ही बचे हैं ऐसे जीव देव योनी में  जिसे आप भोगयोनी  कह सकते हैं, स्वर्ग में जाकर दिव्य भोग भोंगते हैं और पुण्य के क्षय होते ही मृत्यु लोक में वापस आ जाते हैं। 

  • मैं करता हूं कि अभिमान को छोड़कर किए गए कर्म

ऐसे कर्म हमेशा अकर्म बन जाते हैं। इस प्रकार के कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यदि आप अच्छे कर्म करते हैं तो उसे पुण्य कहेंगे और यदि आप बुरे कर्म करते हैं तो उसे आप पाप कह सकते हैं। पुण्य को भी भोगना पड़ता है और पाप को भी भोगना पड़ता है किंतु ऐसे कर्म जिसमें आपकी यह भावना ना हो कि यह आप कर रहे हैं तो ऐसे कर्मों को सुकृति कहते हैं अर्थात यह कर्म अकर्म कहलाते हैं। जब एक हत्या का अपराधी कोर्ट में आता है तब न्यायाधीश उस पर अभियोग का निर्णय सुनाते हैं और उसे फांसी की सजा दे दी जाती है। तब इसका मतलब यह नहीं कि उस फांसी की सजा का कोई कर्म बंधन उस जज पर लागू होगा, क्योंकि यहां पर जज के मन में यह भावना नहीं है कि यह काम मैं कर रहा हूं बल्कि यहां जज के मन में यह बात है कि यह कर्म एक विधान के आधार पर कर रहा हूं और विधान के लिए कर रहा हूं इस कर्म को विधान के द्वारा किया जा रहा है। अतः इस प्रकार के कर्मों का बंधन जज पर लागू नहीं होता ऐसे कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यहां जज को ऐसा कोई मिथ्या अभिमान नहीं होता अतः जज इस कर्म के बंधन से मुक्त है यह कर्म जज के संचित कर्मों में जमा नहीं होता। 

अतः भगवान गीता में अर्जुन से कहते हैं कि तुम इस धर्म युद्ध में अनेकों संहार करोगे किंतु तुम पर यह कर्म बंधन लागू नहीं होगा क्योंकि तुम इन सभी का संहार सिर्फ यह सोचकर के करो कि तुम स्वयं करता नहीं हो अतः तुम इस कर्म के बंधन से मुक्त रहोगे।

मैं ही हूं अथवा मैं ही करता हूं के अभिमान से किए गए सभी कर्म कर्म बंधन में हमें बांधते हैं। ऐसे कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। किंतु ऐसी भावना के विरुद्ध यदि हम स्वयं को निमित मात्र समझें और फिर कर्म करें तो हमें सुकृति की प्राप्ति होगी । 

  • सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म

इस संसार में ऐसे बहुत से कर्म है जो पाप कर्मों में होने के बावजूद क्योंकि वह जगत एवं सृष्टि के कल्याण के लिए होते हैं अतः ऐसे पाप कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। झूठ बोलना पाप कर्म समझा जाता है किंतु झूठ बोलना जब जरूरी हो तब ऐसा झूठ बोलना आपको पाप कर्म में लिप्त नहीं होने देता। तब यह कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होता।भगवान होते हुए भी श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म युद्ध में धर्मराज को झूठ बोलने की प्रेरणा दी और कहा कि कहिए कि अश्वत्थामा मारा गया नरः या कुंजा तब युधिष्ठिर ने ऐसा कहा। इसमें श्री कृष्ण का स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं था यदि पांडव जीत जाते तो उसमें कोई हिस्सा श्रीकृष्ण को नहीं मिलता। ना कोई कमीशन या दलाली मिलती। और इस झूठ को बोला जाए तो द्रोणाचार्य मर जाएगा मात्र ऐसा भी नहीं था। बल्कि इस झूठ से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा और इस धर्म युद्ध में धर्म की विजय होगी मात्र इस भावना के साथ यह झूठ बोला गया था।

हां इस झूठ बोलने से एक तात्कालिक परिणाम जरूर सामने आया कि इससे धर्मराज युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा में राई के दाने जितनी खरोच लगी किंतु इस झूठ के प्रणेता श्री कृष्ण को इस कर्म का बंधन नहीं हुआ और न उन्हें इसका फल भोगने के लिए कोई पुनर्जन्म लेना पड़ा।

  • निष्काम भावना से किए गए कर्म

कामना से रहित किए गए कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य जो कोई कर्म करता है तो निश्चित ही कोई कामना से, इच्छा से, या आशा से, अथवा अपेक्षा से ही करता है और उसमें उस व्यक्ति का दोष नहीं। मनुष्य फल की आशा, इच्छा, कामना रखे या ना रखे तो भी कर्म फल दिए बिना नहीं छोड़ता, ऐसा कर्म का सिद्धांत जान पड़ता है। किंतु फिर भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो कर्म तो करते हैं बावजूद कर्म के फल की कोई इच्छा नहीं रखते। यह बात बड़ी विचित्र है किंतु सच है जैसे मनुष्य पाप तो करता है परंतु उसके फल को पाने की इच्छा नहीं करता मनुष्य चोरी तो करता है, किंतु वह पुलिस से पकड़वाना नहीं चाहता, उसे रिश्वत लेनी है, किंतु रिश्वत लेते पकड़ा नहीं जाना, और उसका कोई फल या कोई सजा नहीं चाहता इसका अभिप्राय यह नहीं कि यह निष्काम कर्म हुए। मनुष्य को पाप करने की इच्छा होती है परंतु उसके फल को भोगने की इच्छा नहीं। मनुष्य को  केवल पुण्य कर्म का फल चाहिए, लेकिन पुण्य कर्म को करना नहीं चाहता और पाप कर्म को करने वाले को फल की कामना नहीं होती, तो इसे हम ऐसा नहीं कह सकते कि वह निष्काम भावना से कर्म कर रहा है, निष्काम कर्म का मतलब होता है शास्त्र से विहित कर्म, धर्म की मर्यादा में रहकर राग और द्वेष की प्रेरणा के बिना, मैं करता हूं के अभिमान के बिना सृष्टि के कल्याण के लिए स्वयं के नीज स्वार्थ को छोड़कर किए गए काम निष्काम भावना से कर्म कहलाते हैं। एक मां अपनी संतान की परवरिश और सार संभाल जो करती हैं वह निष्काम भावना से किए गए कर्मों की श्रेणी में आते हैं ।शास्त्र सम्मत ऐसा कोई भी काम या कर्म जिसके फल की आशा न हो किंतु उसे हम कर रहे हैं वह सभी काम निष्काम भाव से किए गए काम या कर्म कहलाते हैं।इस प्रकार के कर्म भी हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

कर्तव्य बोध से किए गए सभी कर्म जिसमें फल की कोई आशा अपेक्षा इच्छा हो ऐसे सभी कर्म  निष्काम भावना से किए गए कर्म कहलाते हैं। और ऐसे कर्मों का बंधन हम पर लागू नहीं होता। यह कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते। 

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

SABHI KARMA KRIYA HOTE HAI PAR SABHI KRIYA KARMA NAHI HOTE

Posted on May 29, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

क्रिया और कर्म इन दोनों शब्दों में भेद को विशेष रूप से समझना जरूरी है। शारीरिक क्रिया को देखा जा सकता है। परंतु मानसिक क्रिया को देख पाना मुश्किल है।

क्रिया के तीन प्रकार हो सकते हैं। 

1. केवल शारीरिक क्रिया 

2. केवल मानसिक क्रिया 

3. मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया

  1. शारीरिक क्रिया दो प्रकार की होती है- 

1.अनैच्छिक शारीरिक क्रियाएं और 2.ऐच्छिक शारीरिक क्रियाएं

शरीर की बहुत सी क्रियाएं ऐसी होती हैं जो तब भी संपादित होती ही है जब इस प्रकार की कोई इच्छा ना भी करें तो ऐसी क्रियाओं को अनैच्छिक क्रिया कहते हैं।

जैसे आपके ह्रदय की धड़कनों का चलना जैसे आपके श्वास लेने की क्रिया का होना, जैसे आपके पाचन क्रिया का होना, जैसे आपकी आंखों की पलकों का झपकना, यह सब क्रियाएं वह क्रियाएं हैं जो आपकी इच्छा ना हो तो भी निरंतर आपके शरीर से होती है इसे आप रोक नहीं सकते यदि आप इन क्रियाओं को रोकने का प्रयास करेंगे तो हो सकता है कि आप की मृत्यु हो जाए।

शरीर कितनी ही क्रियाए हमारी इच्छा से करता है| उदाहरण के लिए हाथ को खड़ा करना, पांव को लंबा करना, एक पाव पर खड़े रहना, सिर के बल खड़े रहना, दौड़ना, कूदना इत्यादि और कितनी ही क्रियाएं हमारी इच्छा के बिना करता है जैसे हृदय का धड़कना, श्वास-लेना, रक्त धमनियों में रक्त का प्रवाह होना|इन सभी एच्छिक और अनेछिक क्रियाओं में जहां हमारा मन शामिल नहीं होता, और मन को इन क्रियाओं के प्रति कोई राग द्वेष नहीं होता इसलिए गीता की भाषा में इसे कर्म नहीं कहा जा सकता|

  1.  मानसिक क्रिया:

कितनी ही क्रियाओं को आप केवल मन से ही करते हैं| और उन क्रियाओं को शरीर नहीं करता| उदाहरण के लिए आप मन में कोई विचार करते हो| मन में यदि किसी के लिए भला अथवा बुरा सोचते हो या किसी को गाली देते हो| यह सभी मानसिक क्रिया जब तक शारीरिक क्रिया में परिणित ना हो तब तक यह केवल मानसिक क्रिया के रूप में ही रहती है| और इस प्रकार से यह क्रिया कर्म की व्याख्या में नहीं आ सकती| क्रिया के भीतर कोई उद्देश्य या अहंकार शामिल हो तभी वह कर्म बनता है|

अपने मन में कोई गुनाह करने का विचार किया, किसी को थप्पड़ मारने का विचार किया किंतु जब तक शारीरिक रूप से आपका हाथ उस व्यक्ति के गाल के ऊपर तमाचा ना मार दे तब तक यह कर्म गुनाह नहीं बनता| इसलिए फोजदारी कानून में सरकार ने एक प्रोविजन रखा है-

Intention to commit an offence is not an offence.

 अपराध करने मात्र का इरादा (मानसिक क्रिया) जो कि अपराध (कर्म) नहीं कहा जा सकता|किसी भी वकील से इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि अपराध करने का विचार करना अपराध करना नहीं होता|

यह फौजदारी कानून कलियुग में लिखा हुआ है इसलिए कलयुग का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी भी रामायण में कहते हैं कि-

“कलियुग कर यह पुनीता प्रतापा, मानस पुण्य होई नहीं पापा |”  

(उत्तरकाण्ड -103)

कलयुग में मानसिक पुण्य करो तो पुण्य होगा किंतु केवल मानसिक पाप करो तो पाप नहीं होगा इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को मानसिक पाप करने की छूट है|

कहने का अभिप्राय यह है कि कलियुग में मनुष्य के मानसिक पाप का त्याग किया जा सकता है| यदि क्षण भर के लिए मन में कदाचित अपराध का विचार आए तो उसका त्याग किया जा सकता है| उसे शारीरिक कर्म में बदलने से पहले अगर हम त्याग देते हैं और इश्वर से क्षमा प्रार्थना कर ले तो निश्चित ही हम मानसिक पाप से मुक्त हो सकते है| 

शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्था केवल कलियुग में ही है ऐसी व्यवस्था सतयुग में नहीं होती है|

लेकिन कोई व्यक्ति जानबूझकर मानसिक पाप करता है और निरंतर मानसिक प्राप्त करता रहता है| तो एक समय ऐसा जरूर आता है जब उसका मानसिक पाप उसके शरीर को धक्का देकर अनिवार्य रूप से शारीरिक पाप  क्रिया में लिप्त कर देता है और वह शारीरिक क्रिया कर्म बन जाती है अतः वह कर्म क्रियामान कर्म अथवा संचित कर्म में जमा होकर प्रारब्ध बनकर छाती के सामने आकर खड़ा हो जाता है| फिर हंसते हंसते किए गए पाप को मनुष्य को रोते-रोते भोगना पड़ता है, इस से छूटने का और कोई विकल्प या उपाय नहीं होता बल्कि इसे भोगना ही पड़ता है|

  1.  मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया-

मन की कामनाओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए, राग और द्वेष से प्रेरित होकर और स्वार्थ पूर्ति के लिए की गई तमाम शारीरिक क्रियाओं को कर्म कहा जाएगा और इस प्रकार के क्रियामान कर्मों को पाप-पुण्य अथवा  सुख और दुख के रूप में भुगतना ही पड़ेगा|

इस प्रकार के क्रियमाण कर्म हो सकता है तात्कालिक फल ना दें| यह भी हो सकता है कि यह संचित कर्मों में जमा हो जाए, और प्रारब्ध बनकर हमें कर्म का फल देने के बाद ही शांत हो|

किसी भी क्रिया को अच्छी या बुरी नहीं कहा जा सकता| कोई भी क्रिया अच्छे अथवा बुरी नहीं होती क्रिया तो बस क्रिया ही होती है| परंतु जब मन में अहंकार, राग, द्वेष और कामना अथवा वासना आ जाए तब उस क्रिया को कर्म कहा जाता है| और इस प्रकार के कर्म अच्छे या बुरे कहलाए जा सकते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप पुण्य अथवा पाप का बंधन बंध जाता है| जिसके फलस्वरूप हमें सुख अथवा दुख भोगने के लिए देह को धारण करना ही पड़ता है और जन्म मरण के चक्कर में हम बंध जाते हैं| संपूर्ण सृष्टि में कर्म के फल का विधान है, ना की क्रिया के फल का| एक अज्ञानी शिशु छोटे-छोटे जंतुओं को मार देता है तब उसकी यह क्रिया कहलाती है इसे कर्म के कायदे के बीच बांधा नहीं जा सकता| मनुष्य अनजाने में जीव जंतुओं की हिंसा कर लेता है पानी,दूध,सब्जी,अनाज,सांस लेने और छोड़ने में असंख्य जीव जंतुओं की हिस्सा हो जाती है| किंतु उन सब के पीछे हमारे मन की राग-द्वेष या आसक्ति  नहीं होती है इसलिए ये क्रियाये हमारे कर्मों में तब्दील नहीं होती इसलिए हम उसे हिंसा नहीं कह सकते|

सारांश-

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

कर्म के अस्तित्व के लिए क्रिया का होना आवश्यक है| क्रिया मन से, शरीर से, अथवा दोनों से हो सकती है| कलियुग में कोई भी क्रिया जिसे शारीरिक रूप से संपादित नहीं किया उसके कर्म के बंधन में हम नहीं बंधते,  वहां कर्म का बंधन नहीं लगता| किंतु कोई भी क्रिया मन तथा शरीर दोनों से संपादित हो जाती है तब वह क्रिया कर्म में परिवर्तित हो जाती है और उस पर कर्म का बंधन लागू हो जाता है |

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

Association of Godhead

Posted on May 26, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

भगवान् का सानिध्य

महाभारत के समय की एक कथा के अनुसार एक बार अर्जुन कृष्ण के यह कदली वन में पूजा हेतु फूल तोड़ने के लिए जाते है। जेसे ही धनंजय कदली वन में पहुच कर फुल तोड़ना सुरु करते है।  पीछे से एक वृद्ध वानर(हनुमान) आवाज देता है- “ऐ भाई क्या कर रहे हो ?

अजुर्न जवाब में कहता है- “फुल तोड़ रहा हु”

वृद्ध वानर(हनुमान): क्यों तोड़ रहे हो

अर्जुन: पूजा करनी है इसलिए फुल तोड़ रहा हु।

वृद्ध वानर(हनुमान): “अरे भाई फुल तोड़ने से पहले कम से कम पूछ तो लीजिये” एक तो आप अच्छे काम के लिए फुल तोड़ रहे हो तो चोरी करने की बुराई क्यों लेते हो? भलाई के काम में बुराई का सहारा क्यों? पूछ तो लेते फुल तोड़ने से पहले।  खेर छोडिये किनकी पूजा के लिए फुल तोड़ रहे हो ? अर्जुन जवाब में कहते है मेरे प्रभु श्री कृष्ण के लिए।

वृद्ध वानर(हनुमान) हसते हुए कहते तब ठीक है तोड़ लीजिये फुल, जिसका भगवन खुद चोर हो भला भक्त भी क्या करेगा।

इस बात से एकाएक अर्जुन थोड़े से क्रोधित हो जाते हैं और उपहास करते हुए बोलते हैं तो तुम्हारे भगवान में कौन सी खास बात थी।  वानरों का साथ लेकर के एक पूल बनाया अगर दम होता तो पूल अपने तीर से ही बना देते अपने धनुष बाण का क्या उपयोग किया फीर ?

वृद्ध वानर(हनुमान) इस बात पर कहते हैं कि- तो क्या तुम अपने धनुष बाण से अथवा तीर से पुल बना सकते हो? 

अर्जुन बोला हां बिल्कुल मैं अपने धनुष बाण तीर से पुल बना सकता हूं।

वृद्ध वानर(हनुमान) ने कहा कि मेरे प्रभु श्री राम ने जो पुल बनवाया उस पर हम सभी वानर और हमारी सेना चलकर लंका गए किंतु तुम्हारे पुल से मैं एक ही व्यक्ति गुजर जाऊं और पुल ना टूटे तब मैं समझूंगा कि तुम महागुणी हो।  और तब में हारा ओर तुम जीते अन्यथा ऐसा न होने पर तुम क्या करोगे?

इस बात पर अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म को आगे रखकर वचन देता है कि यदि पुल टूट गया तो मैं अग्नि में स्वयं को स्वाहा कर लूंगा।

वृद्ध वानर(हनुमान) अर्जुन को वचन देते हैं कि यदि वह हारे तो वह भी अर्जुन जो कहेंगे करने को तैयार होंगे।

फिर क्या था अर्जुन ने मंत्र जाप किया और अपने धनुष बाण को हाथ में लेकर तीर को प्रत्यंचा पर चढ़ाया और एक विशाल पुल का निर्माण कर दिया।

देखते ही देखते वृद्ध वानर(हनुमान) ने अपने शरीर के आकार को असंख्य गुना बड़ा कर लिया फिर क्या था अर्जुन ने जैसे ही वृद्ध वानर(हनुमान) के विशालकाय शरीर को देखा अर्जुन का अहंकार टूटा सा दिखाई पड़ा जैसे ही वृद्ध वानर(हनुमान) ने अपना एक पैर उस पुल पर रखा वह पुल धराशाई हो गया।  पलट कर जब देखा तो अर्जुन दिखाई नहीं पड़ रहा था।

क्षत्रिय धर्म के वचन अनुसार अर्जुन स्वयं को अग्नि में स्वाहा करने की तैयारी में जुट गया।

कहानी कोई नया मोड़ लेती कि संपूर्ण दृष्टांत भगवान श्री कृष्ण अपने अंतर्मन में देख रहे थे और वह एक ब्राह्मण का वेश धारण करके वहां पहुंच गए और वृद्ध वानर(हनुमान) से कहा कि क्या कहानी का वृतांत है।  तब वृद्ध वानर(हनुमान) ने कहा कि यह व्यक्ति जो कहता है कि मेरे प्रभु श्री राम मैं कोई गुण नहीं था और उन्होंने वानरों की सहायता से पुल बनवाया और मैं अपने तील कौशल से पुल बना सकता हूं लेकिन इनके तीन कौशल से बना पुल मेरे एक पांव रखते ही टूट गया और अब यह अपने वचन अनुसार अग्नि में स्वयं कुशवाहा करेंगे

किंतु भगवान का सानिध्य अनन्य होता है भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण के वेश में वृद्ध वानर(हनुमान) से कहते हैं जब दो व्यक्ति किसी संवाद में होते हैं या किसी विवाद में होते हैं तो निर्णय सदा तीसरे का होता है तुम जो मिल कर के ही निर्णय कैसे ले सकते हो तुम्हें यही घटना मेरे सामने दौरानी होगी

तब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि क्या अर्जुन तुम दोबारा से पूल बना सकते हो?  अर्जुन बोलता है हां मैं दोबारा से फूल बना सकता हूं।  ब्राह्मण वेश में भगवान श्री कृष्ण के कहने पर अर्जुन दुबारा से पुल का निर्माण कर लेता है।

ब्राह्मण वेश में कृष्ण वृद्ध वानर(हनुमान) को कहते हैं कि अब तुम पुल पर चलो यदि पुल टूट गया तो निश्चित ही अर्जुन को अपने आपको स्वयं को अग्नि में स्वाहा करना ही होगा और यदि पूल नहीं टूटा तो आप को वचनानुसार वो सब करना होगा जो अर्जुन कहेगा।

फिर क्या था नवनिर्मित पुल पर जैसे ही वृद्ध वानर(हनुमान) ने अपना कदम रखा भगवान श्री कृष्ण कश्यप का रूप धारण कर लेते हैं और पुल के नीचे बैठ जाते हैं ऐसे में पुल नहीं टूटता और वृद्ध वानर(हनुमान) आगे निकल जाते है इस बात को देख वृद्ध वानर(हनुमान) असमंजस में पड़ जाते हैं।

फिर क्या था इस बार वृद्ध वानर(हनुमान) अपने वचन अनुसार अर्जुन के प्रत्येक आदेश की पालना के लिए तत्पर थे।  निवेदन किया कि अर्जुन मेरे लिए क्या आदेश है मैं क्या करूं तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप का परिचय दिया और वृद्ध वानर(हनुमान) को अनुग्रहित कर आदेशित किया कि युद्ध के दौरान अर्जुन के रथ में आप साथ ही रहेंगे।

वृद्ध वानर(हनुमान) में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि प्रभु जहां सत्संग न हो वहां मेरा क्या काम हमारे प्रभु श्री राम तो युद्ध में भी सत्संग कर लिया करते थे।  इसलिए आप मुझे वचन दीजिए कि इस युद्ध में भी आप मेरे साथ सत्संग करेंगे।

भगवान श्री कृष्ण ने वचन दीया और कहा निश्चित ही तुम्हें सत्संग का आनंद अनुभव होगा तो मित्रों अर्जुन का तो बहाना था किंतु श्रीमद्भागवत गीता का सत्संग हनुमान से करना जो था

यही तो है भगवान और भगवान के भक्तों का सानिध्य।  

 

धर्म कथा

We are bound to avail the result of our own KARMA

Posted on May 24, 2021June 3, 2021 By Pradeep Sharma

 “हमे अपने कर्मो के कर्मफलों को भोगना ही पड़ता है”

कर्म किया और समझो कि उसका फल चिपक गया।  तत्पश्चात उसको भोगने के अलावा और कोई छुटकारा नहीं होता । कर्म-फल से दूर भागने की कितनी भी कोशिश कर लो आपको कर्म का फल लेना ही होगा ।  कर्म आपको फल दिए बिना शांत नहीं होता । हो सकता है आप बहुत बुद्धिमान हो, हो सकता है दुनिया की कोर्ट में आप बहुत अच्छे बुद्धिजीवी वकील को अपने कार्य के लिए नियुक्त कर सकते हो । दुनिया की कोर्ट में आप बड़े से बड़ा कैसे जीत सकते हो । किंतु कुदरत की कोर्ट में जब आपकी हाजिरी लगेगी, तब वहां ना कोई वकील की दलील चलेगी और ना ही वहां कोई सिफारिश चलेगी ।

बहुत वर्षों के पहले की बात है मित्रों । मेरे एक मित्र हुआ करते थे – वह अपने समय में अहमदाबाद में कोर्ट के जज हुआ करते थे । चूँकि वह जाति से ब्राह्मण और प्रकांड  विद्वान एवं वेद अभ्यासी थे तो उनका इश्वर से जुडी बातो में काफी रूचि रहती थी।  मैं कुछ समय के लिए अहमदाबाद में रुका था जब मैं अपने निजी कार्य के लिए अहमदाबाद गया था। तो वहां एलिस ब्रिज एक जगह का नाम है, जहां साबरमती नदी के ऊपर एक ब्रिज बना हुआ है।  ब्रिज के एक छोर पर एक होटल है जिसका नाम होटल एलिस है जिसके मालिक एक मुस्लिम तबके से आते हैं । उन दिनों मेरी उनके साथ भी बड़ी घनिष्ठ मित्रता हो चुकी थी । मैं रोज सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए साबरमती नदी के किनारे पर जाया करता था । वहीं पर मेरी मुलाकात सेशन कोर्ट के उस जज से हुई थी। क्योंकि वे अपने प्रोफेशन से रिटायर हो चुके थे और अपनी वृद्धावस्था के अंतिम दौर पर थे।  एकाएक मेरी उनके साथ बातचीत होने लग गई तब ईश्वर की कर्म विधान के विषय में उनसे मेरी बातचीत हुई । उन्होंने अपने एक अनुभव को मेरे साथ साझा किया।  वही अनुभव है आज आपके साथ साझा कर रहा हूँ –

हमेशा की तरह एक दिन सुबह दिन निकलने से पहले ही कुछ अंधेरे के समय जज साहब मॉर्निंग वॉक पर निकले थे और उस वक्त साबरमती नदी का किनारा इतना विकसित नहीं था जितना आज  दिखाई पड़ता है।  पर फिर भी प्रकृति प्रेमी नदी किनारे पर सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए आया करते थे।  जज साहब किसी पेड़ के नीचे बैठकर के योग प्राणायाम कर रहे थे तभी वहां एक व्यक्ति अंधेरे का फायदा उठाकर किसी अन्य व्यक्ति को पीछे से खंजर से वार करता है और वह व्यक्ति खंजर के वार से घायल होकर गिर पड़ता है।  जिसने खंजर से वार किया था उस व्यक्ति को जज साहब पहचान लेते है। किंतु वह अपराधी वहां से भाग निकलता है। 

मामला फिर पुलिस स्टेशन में पहुंचता है और पुलिस डिपार्टमेंट इस मामले पर कार्रवाई करती है। छह माह  के पश्चात पुलिस अनुसंधान पूरा होता है।  पुलिस के द्वारा एक अभियुक्त को पकड़ा जाता है और उसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है और उस पर अभियोग चलाया जाता है। 

पुलिस डिपार्टमेंट के द्वारा अभियुक्त पर अभियोग चलाया जाता है और कई कानूनी दस्तावेज बतौर सबूत पेश किए जाते हैं जिससे यह साबित और सिद्ध होता है कि- ठीक वही व्यक्ति अपराधी है और उसी व्यक्ति ने ही अन्य व्यक्ति की हत्या की थी। 

 किंतु आश्चर्य की बात यह है कि सेशन जज इस बात को जानते थे कि वह व्यक्ति अपराधी नहीं हैं और वह व्यक्ति वास्तविक अपराधी ना होने के कारण सेशन जज निर्णय सुनाने में असमंजस में थे । धर्म संकट में थे । वे इस संशय में थे कि वह क्या करें क्योंकि सभी सबूत दस्तावेज और गवाह यह साबित करते थे कि वह खुनी, हत्यारा और दोषी है । 

सभी गवाह सबूत और दस्तावेज बनावटी थे। किंतु सेशन जज क्या कर सकते थे?  सेशन जज इस बात के लिए मजबूर थे क्योंकि न्यायालय में निर्णय सबूत गवाह और बयानों के आधार पर होते हैं। 

अब समय आ ही गया था निर्णय सुनाने को लेकिन सेशन जज ने अपनी आत्मा की तसल्ली करने के लिए निर्णय सुनाने से पहले उस अपराधी को अपने चेंबर में एकांत में बुलाया। वह व्यक्ति सेशन जज के चैंबर में जाता है वह जोर-जोर से गिड़गिड़ा कर रोता है और कहता है कि जज साहब मैंने खून नहीं किया है मैं अपराधी नहीं हूं मैं हत्यारा नहीं हूं और मैं इस खून का दोषी नहीं हूँ ।  तभी जज साहब भी यही कहते हैं कि हां मैं यह जानता हूं कि तुम हत्यारे नहीं हो तुम खुनी नहीं हो और यह खून तुमने नहीं किया है क्योंकि यह खून जिसने किया है उसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। 

जज ने उस व्यक्ति से बड़ी मार्मिकता से और भावनाओं से ओतप्रोत होकर एक बात कही कि देखो बच्चे निर्णय तो वही होगा जो सबूत दस्तावेज और गवाह कहेंगे किंतु तुम निर्णय से पहले मुझे सच सच बताओ कि क्या तुमने कभी कोई हत्या की है?

 हत्यारा बोला हां जज साहब इससे पहले मैंने दो खून किए हैं किंतु उस वक्त मैंने उनको खून करने के बाद अच्छे वकीलों को सेवा में लिया था जिसके कारण मैं उस सजा से बरी हो गया और स्वतंत्र हो गया किंतु इस बार मैं निश्चित रूप से सत्य कहता हूं मेने खून नहीं किया मैंने यह हत्या नहीं कि मैं निर्दोष हूं मैं निर्दोष हूं। 

मैं निर्दोष हूं मैं निर्दोष हूं की गुहार लगाता हुआ वह व्यक्ति जोर-जोर से रोने लगा चिखने चिल्लाने लगा गिड़गिड़ा कर, फूट-फूट कर रोने लगा। 

सेशन जज अपने चेंबर में बैठ गए और ईश्वर के कर्म विधान के बारे में सोचने लगे । सेशन जज मन ही मन यह बात समझ गए कि ईश्वर के कर्म विधान में कोई गफलत नहीं होती । निश्चित ही यह व्यक्ति पहले दो खून करके बच चुका था। हो सकता है तब इसके भाग्य के खाते में कुछ पुण्य रहा होगा तभी वह इस पाप से बच गया।  किंतु जो कर्म इसने तब किए थे तब यह कर्म उसके क्रियामान कर्म कहलाए होंगे किंतु तब इस कर्म का फल उसे नहीं मिला और यह कर्म संचित कर्म में तब्दील हो गए और आज यह कर्म इसके प्रारब्ध के रूप में सामने आ गए और इसे प्रारब्ध के रूप में निर्दोष होते हुए भी इस हत्या का दोष लग रहा है क्योंकि वह संचित कर्म पक चुके हैं। 

कर्म के सिद्धांत में न कोई वकील की न कोई जज की न होशियारी चलती है और ना ही सिफारिश चलती है। यदि पाप करते वक्त हमें पाप की सजा नहीं मिल रही है तो आप यही समझिए कि उन पापों की सजा फल के रूप में जमा हो रही है और वह निश्चित ही भविष्य में हमारे सामने प्रस्तुत हो जाएंगी।  हमारे संचित कर्म हमारे प्रारब्ध के रूप में सामने आ ही जाते हैं और हमें फल देकर के ही शांत होते हैं। 

कर्म हो जाने के बाद हम उसके फल से छुटकारा नहीं पा सकते और उसके फल से छुटकारा पाने के लिए हमें इधर-उधर हाथ पांव भी नहीं मारने चाहिए, बल्कि जैसे ही हमने कर्म किया हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि इसका निश्चित परिणाम मुझे निश्चित समय पर भोगना ही पड़ेगा। उसे भोग करके ही  कर्म को नष्ट किया जा  सकता है ।  नहीं तो हंस हंस करके किए गए पाप को रो-रो कर के भोगने हीं पड़ेंगे।

धर्म कथा

THEORY OF KARMA

Posted on May 24, 2021May 28, 2021 By Pradeep Sharma

राजा दशरथ को जब पुत्र विरह से मृत्यु का श्राप मिला तब राजा दशरथ के एक भी संतान नहीं थी तो केसे राजा दशरथ को श्राप लगा ????

कर्म का सिद्धांत

बात अटपटी है! क्योंकि जीवन खुद अटपटा है।  एक व्यक्ति दुखी और दूसरा व्यक्ति सुखी?  सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि चोर, उचक्के, कालाबाजारी और लुटेरे सुखी दिखते हैं। उनके पास  गाड़ी, मोटर, रेडियो और पैसा सब कुछ होता है।  वहीं दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति जो न्याय नीति और धर्म में पवित्र जीवन जीते हैं वह दुखी दिखते हैं।  इसका कारण क्या है?  ऐसा क्यों होता है?  जब ऐसा प्रत्यक्ष रूप से इस सृष्टि में दिखाई पड़ता है तो एकाएक मन को ऐसा महसूस होता है कि ईश्वर है ही नहीं और ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा डगमगाने लगती हैं।  तब लगता है कि सृष्टि में सब कुछ ऐसे ही चल रहा है कोई विधान नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है। कोई कानून नहीं है।

किंतु मित्रों हकीकत यह नहीं है हकीकत यह है कि खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं है। इस बात को यथार्थ रूप से समझने के लिए कर्म के सिद्धांत  का अभ्यास करना बहुत जरूरी है। 

 

जिस प्रकार से  एक राष्ट्र को चलाने के लिए देश की सरकार के द्वारा कई विभाग स्थापित किए गए हैं जैसे एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट के लिए एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट है और चोरों को दंड देने के लिए अपराधियों को दंड देने के लिए एक उचित न्याय व्यवस्था है निर्माण आदि कार्य करने के लिए पीडब्ल्यूडी डिपार्टमेंट है ट्रांसपोर्टेशन करने के लिए रेलवे डिपार्टमेंट या अन्य कई  परिवहन डिपार्टमेंट है। और सबसे खास बात यह है कि सभी डिपार्टमेंट भारत के संविधान के अधीन अपने अपने नियमानुसार चलते हैं। ठीक इसी प्रकार परमपिता परमात्मा परमेश्वर ने इस सृष्टि का भी एक विधान बना रखा है और उसी विधान के अनुसार निश्चित रूप से नियमित रूप से प्रकृति कार्य करती है जैसे सूर्य का निश्चित नियम से गतिमान होना प्रकाशमान होना निश्चित नियम से पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चक्कर लगाती है और निश्चित नियमों के अनुसार ही तारे एवं नक्षत्र गतिमान होते हैं निश्चित नियमों के अनुसार ही बरसात होती है। जगत की उत्पत्ति और जगत की स्थिति को लयबध्द और व्यवस्थित रूप से बनाए रखने के लिए, एवं  सृष्टि के संचालन को बनाए रखने के लिए प्रकृति की सुव्यवस्थित एक विधि है एक विधान है उसी को हम कर्म का सिद्धांत कहते हैं। यह समग्र संसार कर्म के सिद्धांत के आधार पर बराबर व्यवस्थित रीति से चल रहा है जिसमें कोई भी गड़बड़ की गुंजाइश हमें नजर नहीं पड़ती। 

इस कर्म के सिद्धांत की एक खास खूबी या विशेषता  यह है कि दुनिया के तमाम  राष्ट्र के संविधान में कोई ना कोई अपवाद आपको जरूर मिलेगा किंतु कर्म के इस नैसर्गिक सिद्धांत में कोई भी अपवाद की गुंजाइश नहीं है। 

खुद भगवान श्री राम के पिता होने पर भी दशरथ को कर्म के सिद्धांत के अनुसार पुत्र के वियोग में और पुत्र के विरह में मृत्यु को भोगना पड़ा।  जिसमें खुद भगवान श्रीराम ने भी अपनी विवशता ही जाहिर की।  स्वयं भगवान होते हुए भी वह अपने इस विधान को बदल ना सके। वे सृष्टि के विधान को कह ना सके की मेरे पिता दशरथ की मृत्यु को  रोक दो क्योंकि मैं उनका पुत्र हूं।  स्वयं भगवान होते हुए भी दशरथ की मृत्यु को भगवान श्री राम रोक नहीं पाए। 

स्वयं भगवान निर्गुण निराकार शुद्ध ब्रह्म जब धरती पर सगुण साकार बनकर देह धारण कर पृथ्वी पर पधारते हैं तब वे स्वयं भी कर्म के सिद्धांत के प्रति बाध्य होते हैं। कर्म के सिद्धांत के अनुसार परिणाम व फल भोगने के लिए बाध्य होते हैं।  इसमें कोई गुंजाइश की बात नहीं।  कर्म के सिद्धांत में न कोई अंधेर है,  ना कोई देर है।  

 

चलिए दोस्तों अब हम समझते हैं कि कर्म का सिद्धांत क्या है और कर्म किस प्रकार काम करता है। 

कर्म मतलब क्या?

सामान्य और सरल भाषा में कर्म कि अगर व्याख्या की जाए तो कर्म का अर्थ होता है- क्रिया।  हम कोई भी क्रिया करते हैं तो वह कर्म कहलाता है।  जैसे खाना-पीना, नहाना, चलना, खड़े रहना, नौकरी करना, व्यापार करना विचार करना जो कुछ भी हम क्रिया करते हैं वह कर्म कहलाता है।  यह क्रिया हमारे मन और शरीर दोनों से हो सकती है इसलिए क्रिया मानसिक हो या शारीरिक हो कर्म के बंधन में अर्थात कर्म की परिभाषा में आ जाती है। 

हमारे मन अथवा शरीर के द्वारा क्रिया अर्थात कर्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है –

  1. क्रियमान कर्म संचित कर्म एवं 3. प्रारब्ध कर्म

क्रियमान कर्म 

मनुष्य के सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक वह जितने भी कर्म करता है उसे क्रियमान कर्म कहते हैं सोमवार से शनिवार तक महीने की 1 तारीख से आखिरी तारीख तक वह जो भी कर्म करता है वह सभी कर्म क्रियमान कर्म कहलाते हैं । 

क्रियमान कर्म की अपनी एक विशेषता यह है कि यह फल दिए बिना आपका पिंड नहीं छोड़ते।  यदि आपने किसी प्रकार की कोई क्रिया की है तो आपको उसका फल अवश्य ही मिलेगा।  उदाहरण स्वरूप आप ऐसा समझ सकते हैं कि आपको प्यास लगी आपने पानी पिया।  आपने पानी पिया तो आप की प्यास बुझ गई।  प्यास का बुझ जाना अपने आप में इस कर्म का फल होगा।  आपको भूख लगी आपने खाना खाया आपकी भूख मिट गई।  आपको नहाने की इच्छा हुई आपने नहा लिया आपका शरीर शुद्ध हो गया। क्रियमान कर्म का फल मिले बिना रहता नहीं। क्रियमान कर्म फल देकर के ही शांत होता है और उसका फल भोगना ही पड़ता है। 

लेकिन कई क्रियमान कर्म  ऐसे भी होते हैं जो कर्म को करने वाले को तत्काल फल नहीं देते। बल्कि उसके फल को मिलने में समय लगता है। ऐसे कर्म के फल को पकने में समय लगता है।  जब तक यह कच्चे रहते हैं यह कर्म फल आपके भाग्य में जमा रहते हैं और संचित हो जाते हैं इसलिए इस प्रकार के कर्मों को संचित कर्म कहते हैं। 

संचित कर्म 

मित्रों संचित कर्मों के बारे में जानने के लिए हम एक उदाहरण को समझते हैं।  हम पूरे सत्र अच्छी पढ़ाई करते हैं।  लेकिन आज अच्छी पढ़ाई की हुई का परिणाम कल ही नहीं आ जाता  बल्कि हम रोज पढ़ाई करते हैं तो उसका निश्चित फल होता है और उस फल को पकने में समय लगता है और समय आने पर उस फल को हमें प्राप्त करना होता है ठीक वैसे ही बहुत से कर्म ऐसे हैं जो तुरंत फल नहीं देते उनके फल को पकने में समय लगता है।

बाजरे की फसल को पकने में 120 दिन लगते हैं।  आम को फल देने में 5 वर्ष लगते हैं।  इसको इस प्रकार से समझो कि आज जैसे कि आपने पूरे दिन में छोकरी आई कि शो क्रियाओं में आपको 90 क्रियाओं का परिणाम तुरंत मिल गया और वह कर्म शांत हो गया किंतु 10 क्रिया अर्थात 10 कर्म अभी भी ऐसे हैं जिनको फल आपने लिया नहीं है तो निश्चित ही वह कर्म वह क्रियाएं आप के संचित कर्म में जमा हो जाएंगी और ऐसे संचित कर्मों की परिणाम आपको आने वाले कल में अवश्य मिलेगा। 

 

आपको एक पौराणिक कहानी का वर्णन करता हूं जिससे आप संचित कर्म को समझ सकेंगे-

राजा दशरथ ने श्रवण का जब वध किया तो विरह से व्याकुल और विरह में दुखी मरते-मरते श्रवण के माता पिता ने राजा दशरथ को श्राप दे दिया की तेरी मृत्यु भी ठीक इसी तरह से पुत्र के विरह  से होगी।  जबकि दोस्तों आपको जान करके हैरानी होगी कि राजा को जब यह श्राप लगा था तब राजा दशरथ के एक भी पुत्र नहीं था।  तो क्या इस कर्म की सजा या इस कर्म का फल राजा दशरथ को नहीं मिलेगा।  नहीं दोस्तों ऐसा नहीं है ईश्वर का विधान है कि प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल होता है और वह फल आपको अवश्य ही मिलता है इसलिए यह कर्म राजा दशरथ के संचित कर्मों में जमा हो गए, और निश्चित समयावधि बीत जाने के बाद राजा दशरथ के चार पुत्र हुए और वह बड़े हुए उनका विवाह हुआ और जब भगवान श्री राम का राज्याभिषेक होने जा रहा था तो सबसे पहले संचित कर्म फल देने के लिए तत्पर हुआ और संचित कर्म  राजा दशरथ को मृत्यु फल प्रदान  करके ही शांत हुआ। जिसके स्पर्श मात्र से सृष्टि में लोगों को जीवनदान मिल जाता है वह परात्पर परब्रह्म भगवान श्री राम अपने पिता को इस श्राप से मुक्त न कर सके।

 

दोस्तों आपने किसी से कुछ रुपए उधार लिए और उसे लौटाने का वादा किया फिर आप उसे पैसा लौटा नहीं पाए आपके उस मित्र ने आप पर अभियोग चलाया आप कोर्ट में गए तो कोर्ट में मजिस्ट्रेट ने आपको हुक्म दिया कि आप पैसा लौटाइए तब आपने यह महसूस करवा दिया मजिस्ट्रेट को, कि आपके पास एक फूटी कौड़ी नहीं है तो क्या मजिस्ट्रेट आपको बाध्य कर सकता है?  पैसा देने के लिए!  नहीं लेकिन मजिस्ट्रेट आपसे यह लिखित में आश्वासन लेगा की समय आने पर आप पैसा दे देंगे और वह लिखित आश्वासन आपके मित्र को मिल जाएगा। फिर आप उस स्थान से दूर कहीं जाकर के कोई नया व्यापार कर लेते हैं और नया व्यापार करके आप वहां से कुछ पैसा कमा लेते हैं तो आप क्या मानते हैं वह मित्र आपके पास आकर आपसे पैसा नहीं ले सकता? मित्र आपके पास आ करके पैसा ले सकता है।  वह लेगा या नहीं लेगा यह एक अलग बात है।  लेकिन वह आपके पास आ करके पैसा मांगने का अधिकारी है, क्योंकि उसके पास आपका लिखित आश्वासन है।  

ठीक मैं आपको यही समझाना चाहता हूं कि बहुत से कर्म हम करते हैं उसका एक निश्चित परिणाम होता है वह निश्चित परिणाम यदि हमने तुरंत प्रभाव से नहीं लिया होगा या हमें तुरंत नहीं मिला तो निश्चित ही वह परिणाम हमें कल अवश्य देगा इसे संचित कर्म कहते हैं। 

प्रारब्ध कर्म

दोस्तों ऐसे कर्म जो रोज करते हैं और जिनका फल हमें तुरंत मिल जाता है वह क्रियमान कर्म कहलाते हैं। जिन क्रियमान कर्मों का फल हमें तुरंत नहीं मिलता वह क्रियमान कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। जब हमारे संचित कर्म पककर के फल देने को तैयार हो जाते हैं तो उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं आदि अनादि काल से जन्म जन्मांतर के संचित कर्मों का फुल जब हमें मिलने लगता है तो हम इसे प्रारब्ध के कर्मों का फल कहते हैं। 

 

दोस्तों आज का यह ब्लॉक कर्म के सिद्धांत और कर्म के प्रकार को समझाता है अगले ब्लॉग में हम समझेंगे कि किया हुआ कर्म हमें फल अवश्य देता है कैसे………

धर्म कथा

MOHINI EKADASHI KATHA

Posted on May 22, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

मोहिनी एकादशी

आज मोहिनी एकादशी व्रत है।  मित्रों आज भगवान श्री विष्णु की मोहिनी स्वरूप की पूजा अर्चना होने के कारण आज एकादशी को मोहिनी एकादशी कहते हैं।  सनातन धर्म संस्कृति में एकादशी का महत्व बहुत अधिक होने से आज के दिन की महत्वता और भी अधिक बढ़ जाती है। भगवान श्री विष्णु के मोहिनी अवतार से संबंधित एक पौराणिक कथा है, चलिए दोस्तों हम उस पौराणिक कथा को थोड़ा आगे जानते हैं तो यह बात है समुद्र मंथन के समय की, जब देवताओं ने और दानवों ने मिलकर के समुद्र मंथन की प्रक्रिया को करने के लिए आगे बढ़े तो समुद्र मंथन के दौरान अनेकों चीजें निकली बहुत से रत्न निकले, विष निकला जिसका पान भगवान श्री भोलेनाथ ने किया।  और साथ ही साथ कई आभूषण निकले कई प्रकार की विद्या निकली वर्तमान समय में हम जो भी संसाधन आज देख रहे हैं ऐसा प्राय तौर पर माना जाता है कि यह मूल रूप से समुद्र मंथन से ही प्राप्त हुए हैं।  तो वार्ता कुछ इस प्रकार से है कि  अंततोगत्वा समुद्र मंथन से अमृत का एक कलश निकला, और उस अमृत को पाने की इच्छा देवताओं में भी थी और दानवों में भी थी। अमृत पान करने से प्रत्येक जीव अजर अमर हो जाता है तो दानवों ने भी चाहा कि हमें यह अमृतपान मिले और हम अजर अमर हो जाएं।  लेकिन ईश्वर का विधान है ईश्वर सदैव धर्म के साथ है, ईश्वर सदैव सच्चाई के साथ है, तो सभी देवताओं में यह हड़कंप मच गया और सभी देवताओं ने सोचा इस प्रकार से दानव यदि अमृत पान करेंगे तो सृष्टि में केवल दानवता हि खेलेगी और देवताओं के दिव्य गुण फैलने में बड़ी मुश्किल होगी तो सभी देवता मिलकर भगवान श्री विष्णु के पास गए और इस समस्या का एक हल मांगने का प्रयास किया भगवान श्री विष्णु ने सभी देवताओं को इस समस्या का समाधान करने का आश्वासन दिया।  तभी समुद्र मंथन से निकला अमृत कभी देवता छीन रहे थे तो कभी दानव छीन रहे थे।  इस बीच एक मनोरम स्त्री उनके बीच में आती है।  उसके रूप और उसके सौंदर्य को देखकर देवता और दानव आपस में झगड़ा भूल जाते हैं।  जो देवता थे वह इस बात से परिचित थे कि यह सुंदर स्त्री भगवान श्री विष्णु की योग माया की शक्ति है।  भगवान श्री विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण किया है यह कोई सामान्य स्त्री नहीं है। और इसे कोई वश में नहीं कर सकता तब देवताओं ने इस युक्ति को समझ कर उस सुंदर स्त्री की बातें मानने के लिए राजी हो गए।  तो दानव उस सुंदर स्त्री के पास जाते हैं और कहते हैं कि है स्त्री तुम इतनी सुंदर हो कितनी मनमोहक हो और तुम्हारी सुंदरता से हम कायल हैं।  हमारे बीच यह जो झगड़ा है इसे तुम मिटा दो तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से इस अमृत को हम में बांट दो।  जिससे हम लोगों में और अधिक झगड़ा ना हो।  ऐसा देत्यो ने प्रस्ताव रखा उस सुंदर स्त्री के सामने अब क्योंकि वह सुंदर स्त्री कोई और नहीं बल्कि भगवान श्री विष्णु का मोहिनी अवतार ही थी वह भगवान श्री विष्णु की योगमाया शक्ति से सृजित है । सुंदर स्त्री ने देत्यो  से कहा कि ऐसा न्याय करने का भार मुझे क्यों दे रहे हो? तुम बुद्धिमान पुरुष को स्वेच्छाचारी स्त्रियों पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। भगवान श्री विष्णु की मोहिनी अवतार के रूप में इस देवी की परिहास भरी वाणी को सुनकर के देत्यो को और अधिक आश्वासन हो गया और देत्यो एवं दानवों ने  ने वह अमृत का कलश सुंदर स्त्री मोहिनी को थमा दिया।  सुंदर स्त्री ने कहा कि अब न्याय मेरे अनुसार होगा और मैं किस प्रकार से अमृत बाटूंगी यह सब मुझ पर निर्भर करता है। तुम्हें सबको मेरी बात माननी होगी। इस प्रस्ताव के लिए सभी देत्य सहमत हो गए तो मोहिनी ने सभी को अमृत पान कराने के लिए युक्ति संगत हल धुंद लिया और दानवों से कहा की मै कल सभी को अमृत का पान करवाउंगी आप आज सभी जाए और कल स्नान करके लौटे। उसके बाद मोहिनी ने सभी देवताओ को  बिठा दिया।  मोहिनी अवतार में भगवान श्री विष्णु स्त्री रूप में मनमोहक थे उनकी नासिका कपूर मुखारविंद मनोरम थे और भगवान श्री विष्णु ने मोहिनी अवतार में देवताओं को अमृत पान कराया और देत्यो के साथ छल किया इस बात का ज्ञान जब भगवान श्री शिव को हुआ, उन्हें पता चला कि श्री हरि ने दानवो  को मोहित करके देवताओं को अमृत पिला कर के छल किया है तब भगवान श्री हरि की स्तुति वंदना भोलेनाथ ने की।

धर्म कथा, हिन्दू व्रत एवं त्यौहार

Ganga Pradurbhav Katha

Posted on May 18, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

पौराणिक शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मां गंगा स्वर्ग लोक से शिवशंकर की जटाओं में पहुंची थी। इसलिए इस दिन को गंगा सप्तमी के रूप में मनाया जाता है। जिस दिन गंगा जी की उत्पत्ति हुई वह दिन गंगा जयंती (वैशाख शुक्ल सप्तमी) और जिस दिन गंगाजी पृथ्वी पर अवतरित हुई वह दिन ‘गंगा दशहरा’ (ज्येष्ठ शुक्ल दशमी) के नाम से जाना जाता है। इस दिन मां गंगा का पूजन किया जाता है।

गंगा सप्तमी के अवसर पर्व पर मां गंगा में डुबकी लगाने से मनुष्य के सभी पाप धुल जाते हैं और मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वैसे तो गंगा स्नान का अपना अलग ही महत्व है, लेकिन इस दिन गंगा नदी में स्नान करने से दस पापों का हरण होकर अंत में मुक्ति मिलती है।

हिन्दू संस्कृति की आस्था की आधार स्वरूपा माँ गंगा की उत्पति के बारे में अनेक मान्यताये हैं। हिन्दूओ की आस्था का केंद्र गंगा एक मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी के कमंडल से माँ गंगा का जन्म हुआ।

एक अन्य मान्यता के अनुसार गंगा श्री विष्णु जी के चरणों से अवतरित हुई। जिसका पृथ्वी पर अवतरण राजा सगर के साठ हजार पुत्रो का उद्दार करने के लिए इनके वंशज राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ हुए। राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजो का उद्धार करने के लिए पहले माँ गंगा को प्रसन्न किया उसके बाद भगवान शंकर की कठोर आराधना कर नदियों में श्रेष्ठ गंगा को पृथ्वी पर उतरा व व अंत में  माँ गंगा भागीरथ के पीछे – पीछे कपिल मुनि के आश्रम में गई एवं देवनदी गंगा  का स्पर्श होते ही भागीरथ के पूर्वजो [ राजा सगर के साठ  हजार पुत्रो ] का उद्धार हुआ।

एक अन्य कथा श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्धानुसार राजा बलि ने तिन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान वामन का बायाँ चरण ब्रह्मांड के ऊपर चला गया। वहाँ ब्रह्माजी के द्वारा भगवान के चरण धोने के बाद जों जलधारा थी , वह उनके चरणों को स्पर्श करती हुई चार भागो में विभक्त हो गई।

सीता👉  पूर्व दिशा अलकनंदा👉 दक्षिण चक्षु👉 पश्चिम भद्रा👉 उत्तर

विन्ध्यगिरी के उत्तरी भागो में इसे भागीरथी गंगा के नाम से जाना जाता हैं। भारतीय साहित्य में देवनदी गंगा के उत्पत्ति की दो तिथिया बताई जाती हैं।

प्रथम👉 बैशाख मास शुक्ल पक्ष तृतीया द्वितीय👉 ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की गंगा दशमी इनमे से प्रथम वैशाख मास शुक्ल पक्ष का शुभ पर्व आज है।

गंगा जल का स्पर्श होते ही सारे पाप क्षण भर में धुल जाते हैं। देवनदी गंगा जिनके दर्शन मात्र से ही सारे पाप धुल जाते हैं क्यों की गंगा जी भगवान के उन चरण कमलो से निकली हैं जिनके  शरण में जाने से सारे क्लेश मिट जाते हैं।

धर्म कथा

Ganga Shaptami A Story of Birth of Maa Ganga

Posted on May 18, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

माँ गंगा के जन्म की कथा - गंगा शप्तमी

हिन्दू संस्कृति की आस्था की आधार स्वरूपा माँ गंगा की उत्पति के बारे में अनेक मान्यताये हैं। हिन्दूओ की आस्था का केंद्र गंगा एक मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी के कमंडल से माँ गंगा का जन्म हुआ।

एक अन्य मान्यता के अनुसार गंगा श्री विष्णु जी के चरणों से अवतरित हुई। जिसका पृथ्वी पर अवतरण राजा सगर के साठ हजार पुत्रो का उद्दार करने के लिए इनके वंशज राजा दिलीप के पुत्र भागीरथ हुए। राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजो का उद्धार करने के लिए पहले माँ गंगा को प्रसन्न किया उसके बाद भगवान शंकर की कठोर आराधना कर नदियों में श्रेष्ठ गंगा को पृथ्वी पर उतरा व व अंत में  माँ गंगा भागीरथ के पीछे – पीछे कपिल मुनि के आश्रम में गई एवं देवनदी गंगा  का स्पर्श होते ही भागीरथ के पूर्वजो [ राजा सगर के साठ  हजार पुत्रो ] का उद्धार हुआ।

एक अन्य कथा श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्धानुसार राजा बलि ने तिन पग पृथ्वी नापने के समय भगवान वामन का बायाँ चरण ब्रह्मांड के ऊपर चला गया। वहाँ ब्रह्माजी के द्वारा भगवान के चरण धोने के बाद जों जलधारा थी , वह उनके चरणों को स्पर्श करती हुई चार भागो में विभक्त हो गई।

सीता👉  पूर्व दिशा अलकनंदा👉 दक्षिण चक्षु👉 पश्चिम भद्रा👉 उत्तर

विन्ध्यगिरी के उत्तरी भागो में इसे भागीरथी गंगा के नाम से जाना जाता हैं। भारतीय साहित्य में देवनदी गंगा के उत्पत्ति की दो तिथिया बताई जाती हैं।

प्रथम👉 बैशाख मास शुक्ल पक्ष तृतीया

द्वितीय👉 ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की गंगा दशमी इनमे से प्रथम वैशाख मास शुक्ल पक्ष का शुभ पर्व आज है।

गंगा जल का स्पर्श होते ही सारे पाप क्षण भर में धुल जाते हैं। देवनदी गंगा जिनके दर्शन मात्र से ही सारे पाप धुल जाते हैं क्यों की गंगा जी भगवान के उन चरण कमलो से निकली हैं जिनके  शरण में जाने से सारे क्लेश मिट जाते हैं।

धर्म कथा, हिन्दू व्रत एवं त्यौहार

Janaki Nawami A Birthday of Sita Mata

Posted on May 18, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

माता सीता का प्राकट्य दिवस : जानकी नवमी
वैशाख शुक्ल नवमी -21 मई 2021

वैशाख शुक्ल नवमी को सीता नवमी कहते हैं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसी दिन माता सीता का प्राकट्य हुआ था पौराणिक शास्त्रों के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को पुष्य नक्षत्र के मध्यान काल में जब महाराजा जनक संतान प्राप्ति की कामना से यज्ञ की भूमि तैयार करने के लिए हल से भूमि जोत रहे थे उसी समय पृथ्वी से एक बालिका का प्राकट्य हुआ ज्योति हुई भूमि तथा हल्के लोग को भी सीता कहा जाता है. इसलिए बालिका का नाम सीता रखा गया था। अतः इस पर्व को जाने की नवमी भी कहते हैं मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन व्रत रखता है वह राम सीता का विधि विधान से पूजन करता है उसे 16 महान दानों का फल, पृथ्वी-दान का फल तथा समस्त तीर्थों के दर्शन का फल मिल जाता है। इस दिन माता सीता के मंगलमय नाम – श्री सीताजी नमः ओम श्री सीतारामाय नमः का उच्चारण करना लाभदायक रहता है सीता नवमी की पौराणिक कथा के अनुसार मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी धर्मधुरीण ब्राह्मण निवास करते थे उनका नाम देवदत्त था। उन ब्राह्मण की बड़ी सुंदर रूपवती पत्नी थी उनका नाम शोभना था। ब्राह्मण देवता जीविका के लिए अपने ग्राम से अन्य किसी ग्राम में भिक्षा के लिए गए हुए थे। इधर ब्राह्मणी कुसंगत में फंसकर व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई, अब तो पूरे गांव में उसके इस निकृष्ट कर्म की चर्चाएं होने लगी परंतु उस दुष्टा ने गांव ही जलवा दिया दुष्कर्म में रत रहने वाली वह दुर्बुद्धि मरी तो उसका अगला जन्म चांडाल के घर में हुआ और पति का त्याग करने से वह चांडालिनी बनी। ग्रामवासी ग्राम जलाने से उसे भीषण कुष्ट रोग हो गया तथा व्यभिचार कर्म के कारण वह अंधी हो गई। अपने कर्म का फल उसे भोगना ही था इस प्रकार वह अपने कर्म के योग से दिनोंदिन दारुण दुख प्राप्त करती हुई देश देशांतर में भटकने लगी, एक बार देव-योग से वह भटकती हुई कौशलपुरी पहुंच गई। संयोगवश उस दिन वैशाख मास शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि थी जो समस्त पापों का नाश करने में समर्थ है सीता जानकी माता। नवमी के पावन उत्सव पर भूख प्यास से व्याकुल वह दुखियारी इस प्रकार प्रार्थना करने लगी है सज्जनों मुझ पर कृपा कर कुछ भोजन सामग्री प्रदान करो मैं भूख से मर रही हूं ऐसा कहती हुई वह स्त्री श्री कनक भवन के सामने बने एक हजार पुष्प मंडित स्तंभों से गुजरती हुई उसमें प्रविष्ट हुई उसने उनको पुकार लगाई भैया कोई तो मेरी मदद करो कुछ तो भोजन दे दो, इतने में एक भक्त ने उससे कहा देवी आज तो सीता नवमी है। भोजन में अन्न देने वाले को पाप लगता है इसलिए आज तो अन्न नहीं मिलेगा कल पारना करने के समय आना ठाकुर जी का प्रसाद भरपेट मिलेगा। किंतु वह नहीं मानी अधिक कहने पर भक्तों ने उसे तुलसी और जल प्रदान किया। वह पापीनी भूख से मर गई किंतु इसी बहाने अनजाने में उसने सीता नवमी का व्रत पूरा हो गया, अब तो परम कृपालिनी ने उसे समस्त पापों से मुक्त कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह पापिनी निर्मल होकर स्वर्ग में आनंद पूर्वक अनंत वर्षों तक रही। तत्पश्चात वह कामरूप देश के महान राजा जयसिंह की महारानी कामकला के नाम से विख्यात हुई उसने अपने राज्य में अनेक देवालय बनवाएं जिनमें जानकी रघुनाथ की प्रतिष्ठा करवाई अतः सीता नवमी पर जो श्रद्धालु माता जानकी का पूजा अर्चन करते हैं उनको सभी प्रकार के सुख सौभाग्य प्राप्त होते हैं इस दिन जानकी-स्त्रोत्र रामचंद्र-अष्टकं रामचरितमानस आदि का पाठ करने से मनुष्य के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।

धर्म कथा, हिन्दू व्रत एवं त्यौहार

AKSHAY TRITIYA

Posted on May 18, 2021May 28, 2021 By Pradeep Sharma
(अक्षय तृतीया एवं भगवान श्री परशुराम जन्मोत्सव की शुभकामनाये )
 
 

अक्षय तृतीया के रूप में प्रख्यात वैशाख शुक्ल तीज को स्वयं सिद्ध मुहूर्तो में से एक माना जाता है| पौराणिक मान्यता है, कि इस तिथि में आरंभ किए गए कार्यों को कम से कम प्रयास में ज्यादा से ज्यादा सफलता मिलती है| अक्षय तृतीया में 42 घटी और 21 पल होते हैं| सोना खरीदने के लिए यह श्रेष्ठ काल माना गया है| अध्ययन आरंभ करने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ दिन है| अक्षय तृतीया- कुंभ स्नान व दान पुण्य के साथ पितरों की आत्मा की शांति के लिए आराधना का दिन भी माना गया है|

शास्त्रों में अक्षय तृतीया को स्वयं सिद्ध मुहूर्त माना गया है| अक्षय तृतीया के दिन मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश, व्यापार एवं उद्योग धंधों का आरंभ करना अति शुभ फलदायक होता है सही मायने में अक्षय तृतीया अपने नाम के अनुरूप शुभ फल प्रदान करती है| अक्षय तृतीया पर सूर्य तथा चंद्रमा अपनी उच्च राशि में रहते हैं तथा आखा तीज तिथि का उन लोगों के लिए विशेष महत्व होता है जिनके विवाह के लिए ग्रह नक्षत्र मेल नहीं खाते इस शुभ तिथि पर सबसे ज्यादा विवाह संपन्न होते हैं| मान्यता है कि इस दिन भगवान श्री परशुराम का जन्म हुआ था, इसलिए सभी इसे परशुराम जयंती के रूप में मनाते हैं वही हिंदू शास्त्रों के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व के दिन स्नान होम, जप, दान, आदि का अनंत फल मिलता है| इसलिए हिंदू संस्कृति में इसका विशेष महत्व हो जाता है| अक्षय तृतीया के पावन पर्व को कई नामों से जाना जाता है इसे आखा तीज वैशाख तीज भी कहा जाता है भारतीय शास्त्रों में चार अत्यंत शुभ सिद्ध मंगल मुहूर्त माने गए हैं 1. गुड़ी पड़वा 2. अक्षय तृतीया 3. दशहरा 4. धनतेरस वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया या आखातीज कहते हैं| अक्षय का शाब्दिक अर्थ होता है जिसका कभी नाश या क्षय नहीं होता अर्थात जो स्थाई रहता है स्थाई वही रह सकता है जो सदा शाश्वत है इस पृथ्वी पर केवल और केवल सत्य, परमात्मा है जो अक्षय अखंड और सर्वव्यापक हैं यानी अक्षय तृतीया तिथि ईश्वर की तिथि है| इसी दिन नर-नारायण, परशुराम और हयग्रीव का अवतार हुआ था इसलिए इनकी जयंतिया भी अक्षय तृतीया को मनाई जाती है| परशुराम जी की गिनती 4 चिरंजीवी विभूतियों में की जाती है इसी वजह से यह तिथि चिरंजीवी की भी कहलाती है चार युग 1.सतयुग 2.त्रेता युग 3.द्वापर युग और 4.कलियुग में से त्रेता युग का आरंभ इसी अक्षय तृतीया से हुआ है| अंकों में विषम अंको को विशेष रूप से तीन को अविभाज्य यानी अक्षय माना जाता है| तिथियों में शुक्ल पक्ष की तीज यानी तृतीया को विशेष महत्व दिया जाता है| वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को समस्त अतिथियों से सबसे विशेष स्थान प्राप्त है

 

धर्म कथा, हिन्दू व्रत एवं त्यौहार

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