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THE HOLY TOUR & TRAVEL OF TEMPLES IN INDIA

Category: कुशलता और अभिप्रेरणा

Skill & Motivation Story by Dr Rajesh Gaur (Sobhasaria Group of Institutions, Sikar, Raj.)

Those 6 trees from which the most oxygen is made, which keep the environment pure

Posted on July 22, 2021July 30, 2021 By Pradeep Sharma

वो 6 पेड़ जिनसे बनती है सबसे ज्‍यादा ऑक्‍सीजन, जो रखते हैं पर्यावरण को शुद्धवो 6 पेड़ जिनसे बनती है सबसे ज्‍यादा ऑक्‍सीजन, जो रखते हैं पर्यावरण को शुद्ध

यह बात सबसे अहम है कि हमारे वातावरण में कितनी ऑक्‍सीजन है आइए जानते हैं उन पेड़ों के बारे में जो सबसे ज्‍यादा ऑक्‍सीजन जनरेट करते हैं…….

पर्यावरण के लिए वरदान हैं ये 6 पेड़:- 

ये वो 6 पेड़ हैं जो आपको अक्‍सर कहीं न कहीं दिख जाएंगे, आपके बगीचे में अगर ये पेड़ नहीं हैं तो तुरंत इन्‍हें लगाएं, ये आपको भी स्‍वस्‍थ रखेंगे और आपके वातावरण को भी….

1:-पीपल का पेड़:-

हिंदु धर्म में पीपल तो बौद्ध धर्म में इसे बोधी ट्री के नाम से जानते हैं, कहते हैं कि इसी पेड़ के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान प्राप्‍त हुआ था, पीपल का पेड़ 60 से 80 फीट तक लंबा हो सकता है, यह पेड़ सबसे ज्‍यादा ऑक्‍सीजन देता है, इसलिए पर्यावरणविद पीपल का पेड़ लगाने के लिए बार-बार कहते हैं।

2:-बरगद का पेड़:- 

इस पेड़ को भारत का राष्‍ट्रीय वृक्ष भी कहते हैं, इसे हिंदू धर्म में बहुत पवित्र भी माना जाता है, बरगद का पेड़ बहुत लंबा हो सकता है और यह पेड़ कितनी ऑक्‍सीजन उत्‍पादित करता है ये उसकी छाया कितनी है, इस पर निर्भर करता है।

3:-नीम का पेड़:- 

एक और पेड़ जिसके बहुत से फायदे हैं, नीम का पेड़, इस पेड़ को एक एवरग्रीन पेड़ कहा जाता है और पर्यावरणविदों की मानें तो यह एक नैचुरल एयर प्‍यूरीफायर है, ये पेड़ प्रदूषित गैसों जैसे कार्बन डाई ऑक्‍साइड, सल्‍फर और नाइट्रोजन को हवा से ग्रहण करके पर्यावरण में ऑक्‍सीजन को छोड़ता है, इसकी पत्तियों की संरचना ऐसी होती है कि ये बड़ी मात्रा में ऑक्‍सीजन उत्‍पादित कर सकता है ऐसे में हमेशा ज्‍यादा से ज्‍यादा नीम के पेड़ लगाने की सलाह दी जाती है, इससे आसपास की हवा हमेशा शुद्ध रहती है।

4:-अशोक का पेड़:- 

अशोक का पेड़ न सिर्फ ऑक्‍सीजन उत्‍पादित करता है बल्कि इसके फूल पर्यावरण को सुंगधित रखते हैं और उसकी खूबसूरती को बढ़ाते हैं, यह एक छोटा सा पेड़ होता है जिसकी जड़ एकदम सीधी होती है, पर्यावरणविदों की मानें तो अशोक के पेड़ को लगाने से न केवल वातावरण शुद्ध रहता है बल्कि उसकी शोभा भी बढ़ती है, घर में अशोक का पेड़ हर बीमारी को दूर रखता है, ये पेड़ जहरीली गैसों के अलावा हवा के दूसरे दूषित कणों को भी सोख लेता है।

5:-अर्जुन का पेड़:- 

अर्जुन के पेड़ के बारे में कहते हैं कि यह हमेशा हरा-भरा रहता है, इसके बहुत से आर्युवेदिक फायदे हैं, इस पेड़ का धार्मिक महत्‍व भी बहुत है और कहते हैं कि ये माता सीता का पसंदीदा पेड़ था, हवा से कार्बन डाई ऑक्‍साइड और दूषित गैसों को सोख कर ये उन्‍हें ऑक्‍सीजन में बदल देता है।

6:-जामुन का पेड़:- 

भारतीय अध्‍यात्मिक कथाओं में भारत को जंबूद्वीप यानी जामुन की धरती के तौर पर भी कहा गया है, जामुन का पेड़ 50 से 100 फीट तक लंबा हो सकता है, इसके फल के अलावा यह पेड़ सल्‍फर ऑक्‍साइड और नाइट्रोजन जैसी जहरीली गैसों को हवा से सोख लेता है, इसके अलावा कई दूषित कणों को भी जामुन का पेड़ ग्रहण करता है।

 आओ मिलकर पेड़ लगाएं,  पर्यावरण को शुद्ध बनाएं।।

कुशलता और अभिप्रेरणा

Disposal of Karma

Posted on June 5, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

कर्म कि गती (कर्म का निपटान)

वह कौन से कर्म है जो हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते ?

  1. अबोधता एवं अज्ञानता की स्थिति में किए गए कर्म
  2. अचेतन अवस्था में किए गए कर्म
  3. मनुष्य को छोड़कर अन्य योनियों में किए गए कर्म
  4. मैं करता हूं के अभिमान को छोड़कर किए गए कर कर्म
  5. सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म
  6. निष्काम भावना से किए गए कर्म
  • अबोधता, अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए कर्म

बाल्यावस्था में किए गए कर्म और अचेतन अवस्था में किए गए कर्म या पागलपन में किए गए कर्म, राग द्वेष की प्रेरणा से नहीं किए गए थे अतः राग द्वेष की प्रेरणा के बिना इन कर्मों को संचित कर्मों में जमा नहीं होना पड़ता। यदि कोई छोटा बच्चा अग्नि में हाथ डाले तो वह जलेगा जरूर और कर्म तात्कालिक फल देगा। किंतु यही कर्म घूम कर वापस उसके संचित कर्मों में जमा नहीं होगा और दूसरी बार फल देने के लिए सामने नहीं आएगा।  3 वर्ष का छोटा बच्चा खाट में उछलता है, कूदता है और वहीं पर 3 वर्ष का अन्य बच्चा सो रहा है, यदि उसके गले पर उछलते हुए बच्चे का पांव लग जाए और वह बच्चा मर जाए तो उस 3 वर्ष के बच्चे पर इंडियन पेनल कोड की धारा 302 के मुताबिक हत्या का केस नहीं चल सकता, क्योंकि इस कर्म में कोई राग द्वेष नहीं था अतः इस प्रकार के कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते अतः शिशु अवस्था में किसी बच्चे ने किसी दस्तावेज पर कोई काम किया हो तो उसे कोर्ट मान्य नहीं करती।

मित्रों यहां ध्यान देने की बात है की अबोधता,अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए सभी क्रियामान कर्मों का तात्कालिक फल जरूर होता है। किंतु यह संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यह कर्म भविष्य में फल देने हेतु सामने प्रस्तुत नहीं होते बल्कि इनका जो भी परिणाम होता है वह तुरंत प्रभाव से हमें मिल जाता है। 

अर्थात मनुष्य का कोई भी ऐसा कर्म जो किसी प्रकार की राग द्वेष शक्ति इच्छा की भावना से जुड़ा हो वह कर्म संचित कर्म में संचित हो सकता है। वह भविष्य में फल देने के लिए आपके सामने प्रस्तुत हो सकता है।

  • मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनि में किए गए कर्म

मनुष्य योनि के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में किए गए कोई भी कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते क्योंकि मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य तमाम योनीया भोग योनीया कहलाती है।मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में जीवात्मा अपने पूर्व संचित कर्मों को प्रारब्ध के रूप में भोग करके ही देह से छुटकारा पाती हैं।अतः इनके कोई भी नए क्रियामान कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

घोड़े, गधे, कुत्ते, बिल्ली, पशु-पक्षी, इत्यादि योनियों में जीव मात्र प्रकृति के अनुसार ही अपना जीवन जीते हैं इससे यह अपनी योनियों, में केवल और केवल प्रारब्ध कर्म को ही भोगते है।और इस प्रकार की योनियों में क्रिया मानकर्म तात्कालिक फल देते हैं।इससे यह बाद में संचित कर्म में जमा नहीं होते।उदाहरण स्वरूप गधा यदि किसी को लात मारे तो बदले में वह दो लकड़ी की फटकार खा लेता है ऐसा नहीं होता कि उसकी यह लात मारने की क्रिया संचित कर्मों में जमा हो जाएगी।यदि किसी खेत में पशु प्रवेश कर जाता है और फसल को नुकसान करता है तो बदले में खेत का मालिक उस पशु को लकड़ी से पीटकर भगा देता है पशु का खेत में प्रवेश करना जो कर्म है उसका तात्कालिक फल वह पा लेता है अतः उसका कोई भी कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होता। पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा मछली जलचर नभचर और कई प्रकार के जीव भोगयोनि ही कहलाते हैं।अतः इनके नए क्रियामान कर्म कभी भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।देव योनी भी एक प्रकार से भोग योनि ही है।देवता भी स्वयं के पुण्य कर्मों के आधार पर सुख भोगते हैं। देवताओं के क्रियामान कर्म भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।जिनके तमाम पाप नष्ट हो चुके हैं और जिनके सिलक में  मात्र पुण्य कर्म ही बचे हैं ऐसे जीव देव योनी में  जिसे आप भोगयोनी  कह सकते हैं, स्वर्ग में जाकर दिव्य भोग भोंगते हैं और पुण्य के क्षय होते ही मृत्यु लोक में वापस आ जाते हैं। 

  • मैं करता हूं कि अभिमान को छोड़कर किए गए कर्म

ऐसे कर्म हमेशा अकर्म बन जाते हैं। इस प्रकार के कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यदि आप अच्छे कर्म करते हैं तो उसे पुण्य कहेंगे और यदि आप बुरे कर्म करते हैं तो उसे आप पाप कह सकते हैं। पुण्य को भी भोगना पड़ता है और पाप को भी भोगना पड़ता है किंतु ऐसे कर्म जिसमें आपकी यह भावना ना हो कि यह आप कर रहे हैं तो ऐसे कर्मों को सुकृति कहते हैं अर्थात यह कर्म अकर्म कहलाते हैं। जब एक हत्या का अपराधी कोर्ट में आता है तब न्यायाधीश उस पर अभियोग का निर्णय सुनाते हैं और उसे फांसी की सजा दे दी जाती है। तब इसका मतलब यह नहीं कि उस फांसी की सजा का कोई कर्म बंधन उस जज पर लागू होगा, क्योंकि यहां पर जज के मन में यह भावना नहीं है कि यह काम मैं कर रहा हूं बल्कि यहां जज के मन में यह बात है कि यह कर्म एक विधान के आधार पर कर रहा हूं और विधान के लिए कर रहा हूं इस कर्म को विधान के द्वारा किया जा रहा है। अतः इस प्रकार के कर्मों का बंधन जज पर लागू नहीं होता ऐसे कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यहां जज को ऐसा कोई मिथ्या अभिमान नहीं होता अतः जज इस कर्म के बंधन से मुक्त है यह कर्म जज के संचित कर्मों में जमा नहीं होता। 

अतः भगवान गीता में अर्जुन से कहते हैं कि तुम इस धर्म युद्ध में अनेकों संहार करोगे किंतु तुम पर यह कर्म बंधन लागू नहीं होगा क्योंकि तुम इन सभी का संहार सिर्फ यह सोचकर के करो कि तुम स्वयं करता नहीं हो अतः तुम इस कर्म के बंधन से मुक्त रहोगे।

मैं ही हूं अथवा मैं ही करता हूं के अभिमान से किए गए सभी कर्म कर्म बंधन में हमें बांधते हैं। ऐसे कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। किंतु ऐसी भावना के विरुद्ध यदि हम स्वयं को निमित मात्र समझें और फिर कर्म करें तो हमें सुकृति की प्राप्ति होगी । 

  • सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म

इस संसार में ऐसे बहुत से कर्म है जो पाप कर्मों में होने के बावजूद क्योंकि वह जगत एवं सृष्टि के कल्याण के लिए होते हैं अतः ऐसे पाप कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। झूठ बोलना पाप कर्म समझा जाता है किंतु झूठ बोलना जब जरूरी हो तब ऐसा झूठ बोलना आपको पाप कर्म में लिप्त नहीं होने देता। तब यह कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होता।भगवान होते हुए भी श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म युद्ध में धर्मराज को झूठ बोलने की प्रेरणा दी और कहा कि कहिए कि अश्वत्थामा मारा गया नरः या कुंजा तब युधिष्ठिर ने ऐसा कहा। इसमें श्री कृष्ण का स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं था यदि पांडव जीत जाते तो उसमें कोई हिस्सा श्रीकृष्ण को नहीं मिलता। ना कोई कमीशन या दलाली मिलती। और इस झूठ को बोला जाए तो द्रोणाचार्य मर जाएगा मात्र ऐसा भी नहीं था। बल्कि इस झूठ से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा और इस धर्म युद्ध में धर्म की विजय होगी मात्र इस भावना के साथ यह झूठ बोला गया था।

हां इस झूठ बोलने से एक तात्कालिक परिणाम जरूर सामने आया कि इससे धर्मराज युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा में राई के दाने जितनी खरोच लगी किंतु इस झूठ के प्रणेता श्री कृष्ण को इस कर्म का बंधन नहीं हुआ और न उन्हें इसका फल भोगने के लिए कोई पुनर्जन्म लेना पड़ा।

  • निष्काम भावना से किए गए कर्म

कामना से रहित किए गए कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य जो कोई कर्म करता है तो निश्चित ही कोई कामना से, इच्छा से, या आशा से, अथवा अपेक्षा से ही करता है और उसमें उस व्यक्ति का दोष नहीं। मनुष्य फल की आशा, इच्छा, कामना रखे या ना रखे तो भी कर्म फल दिए बिना नहीं छोड़ता, ऐसा कर्म का सिद्धांत जान पड़ता है। किंतु फिर भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो कर्म तो करते हैं बावजूद कर्म के फल की कोई इच्छा नहीं रखते। यह बात बड़ी विचित्र है किंतु सच है जैसे मनुष्य पाप तो करता है परंतु उसके फल को पाने की इच्छा नहीं करता मनुष्य चोरी तो करता है, किंतु वह पुलिस से पकड़वाना नहीं चाहता, उसे रिश्वत लेनी है, किंतु रिश्वत लेते पकड़ा नहीं जाना, और उसका कोई फल या कोई सजा नहीं चाहता इसका अभिप्राय यह नहीं कि यह निष्काम कर्म हुए। मनुष्य को पाप करने की इच्छा होती है परंतु उसके फल को भोगने की इच्छा नहीं। मनुष्य को  केवल पुण्य कर्म का फल चाहिए, लेकिन पुण्य कर्म को करना नहीं चाहता और पाप कर्म को करने वाले को फल की कामना नहीं होती, तो इसे हम ऐसा नहीं कह सकते कि वह निष्काम भावना से कर्म कर रहा है, निष्काम कर्म का मतलब होता है शास्त्र से विहित कर्म, धर्म की मर्यादा में रहकर राग और द्वेष की प्रेरणा के बिना, मैं करता हूं के अभिमान के बिना सृष्टि के कल्याण के लिए स्वयं के नीज स्वार्थ को छोड़कर किए गए काम निष्काम भावना से कर्म कहलाते हैं। एक मां अपनी संतान की परवरिश और सार संभाल जो करती हैं वह निष्काम भावना से किए गए कर्मों की श्रेणी में आते हैं ।शास्त्र सम्मत ऐसा कोई भी काम या कर्म जिसके फल की आशा न हो किंतु उसे हम कर रहे हैं वह सभी काम निष्काम भाव से किए गए काम या कर्म कहलाते हैं।इस प्रकार के कर्म भी हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

कर्तव्य बोध से किए गए सभी कर्म जिसमें फल की कोई आशा अपेक्षा इच्छा हो ऐसे सभी कर्म  निष्काम भावना से किए गए कर्म कहलाते हैं। और ऐसे कर्मों का बंधन हम पर लागू नहीं होता। यह कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते। 

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

SABHI KARMA KRIYA HOTE HAI PAR SABHI KRIYA KARMA NAHI HOTE

Posted on May 29, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

क्रिया और कर्म इन दोनों शब्दों में भेद को विशेष रूप से समझना जरूरी है। शारीरिक क्रिया को देखा जा सकता है। परंतु मानसिक क्रिया को देख पाना मुश्किल है।

क्रिया के तीन प्रकार हो सकते हैं। 

1. केवल शारीरिक क्रिया 

2. केवल मानसिक क्रिया 

3. मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया

  1. शारीरिक क्रिया दो प्रकार की होती है- 

1.अनैच्छिक शारीरिक क्रियाएं और 2.ऐच्छिक शारीरिक क्रियाएं

शरीर की बहुत सी क्रियाएं ऐसी होती हैं जो तब भी संपादित होती ही है जब इस प्रकार की कोई इच्छा ना भी करें तो ऐसी क्रियाओं को अनैच्छिक क्रिया कहते हैं।

जैसे आपके ह्रदय की धड़कनों का चलना जैसे आपके श्वास लेने की क्रिया का होना, जैसे आपके पाचन क्रिया का होना, जैसे आपकी आंखों की पलकों का झपकना, यह सब क्रियाएं वह क्रियाएं हैं जो आपकी इच्छा ना हो तो भी निरंतर आपके शरीर से होती है इसे आप रोक नहीं सकते यदि आप इन क्रियाओं को रोकने का प्रयास करेंगे तो हो सकता है कि आप की मृत्यु हो जाए।

शरीर कितनी ही क्रियाए हमारी इच्छा से करता है| उदाहरण के लिए हाथ को खड़ा करना, पांव को लंबा करना, एक पाव पर खड़े रहना, सिर के बल खड़े रहना, दौड़ना, कूदना इत्यादि और कितनी ही क्रियाएं हमारी इच्छा के बिना करता है जैसे हृदय का धड़कना, श्वास-लेना, रक्त धमनियों में रक्त का प्रवाह होना|इन सभी एच्छिक और अनेछिक क्रियाओं में जहां हमारा मन शामिल नहीं होता, और मन को इन क्रियाओं के प्रति कोई राग द्वेष नहीं होता इसलिए गीता की भाषा में इसे कर्म नहीं कहा जा सकता|

  1.  मानसिक क्रिया:

कितनी ही क्रियाओं को आप केवल मन से ही करते हैं| और उन क्रियाओं को शरीर नहीं करता| उदाहरण के लिए आप मन में कोई विचार करते हो| मन में यदि किसी के लिए भला अथवा बुरा सोचते हो या किसी को गाली देते हो| यह सभी मानसिक क्रिया जब तक शारीरिक क्रिया में परिणित ना हो तब तक यह केवल मानसिक क्रिया के रूप में ही रहती है| और इस प्रकार से यह क्रिया कर्म की व्याख्या में नहीं आ सकती| क्रिया के भीतर कोई उद्देश्य या अहंकार शामिल हो तभी वह कर्म बनता है|

अपने मन में कोई गुनाह करने का विचार किया, किसी को थप्पड़ मारने का विचार किया किंतु जब तक शारीरिक रूप से आपका हाथ उस व्यक्ति के गाल के ऊपर तमाचा ना मार दे तब तक यह कर्म गुनाह नहीं बनता| इसलिए फोजदारी कानून में सरकार ने एक प्रोविजन रखा है-

Intention to commit an offence is not an offence.

 अपराध करने मात्र का इरादा (मानसिक क्रिया) जो कि अपराध (कर्म) नहीं कहा जा सकता|किसी भी वकील से इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि अपराध करने का विचार करना अपराध करना नहीं होता|

यह फौजदारी कानून कलियुग में लिखा हुआ है इसलिए कलयुग का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी भी रामायण में कहते हैं कि-

“कलियुग कर यह पुनीता प्रतापा, मानस पुण्य होई नहीं पापा |”  

(उत्तरकाण्ड -103)

कलयुग में मानसिक पुण्य करो तो पुण्य होगा किंतु केवल मानसिक पाप करो तो पाप नहीं होगा इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को मानसिक पाप करने की छूट है|

कहने का अभिप्राय यह है कि कलियुग में मनुष्य के मानसिक पाप का त्याग किया जा सकता है| यदि क्षण भर के लिए मन में कदाचित अपराध का विचार आए तो उसका त्याग किया जा सकता है| उसे शारीरिक कर्म में बदलने से पहले अगर हम त्याग देते हैं और इश्वर से क्षमा प्रार्थना कर ले तो निश्चित ही हम मानसिक पाप से मुक्त हो सकते है| 

शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्था केवल कलियुग में ही है ऐसी व्यवस्था सतयुग में नहीं होती है|

लेकिन कोई व्यक्ति जानबूझकर मानसिक पाप करता है और निरंतर मानसिक प्राप्त करता रहता है| तो एक समय ऐसा जरूर आता है जब उसका मानसिक पाप उसके शरीर को धक्का देकर अनिवार्य रूप से शारीरिक पाप  क्रिया में लिप्त कर देता है और वह शारीरिक क्रिया कर्म बन जाती है अतः वह कर्म क्रियामान कर्म अथवा संचित कर्म में जमा होकर प्रारब्ध बनकर छाती के सामने आकर खड़ा हो जाता है| फिर हंसते हंसते किए गए पाप को मनुष्य को रोते-रोते भोगना पड़ता है, इस से छूटने का और कोई विकल्प या उपाय नहीं होता बल्कि इसे भोगना ही पड़ता है|

  1.  मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया-

मन की कामनाओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए, राग और द्वेष से प्रेरित होकर और स्वार्थ पूर्ति के लिए की गई तमाम शारीरिक क्रियाओं को कर्म कहा जाएगा और इस प्रकार के क्रियामान कर्मों को पाप-पुण्य अथवा  सुख और दुख के रूप में भुगतना ही पड़ेगा|

इस प्रकार के क्रियमाण कर्म हो सकता है तात्कालिक फल ना दें| यह भी हो सकता है कि यह संचित कर्मों में जमा हो जाए, और प्रारब्ध बनकर हमें कर्म का फल देने के बाद ही शांत हो|

किसी भी क्रिया को अच्छी या बुरी नहीं कहा जा सकता| कोई भी क्रिया अच्छे अथवा बुरी नहीं होती क्रिया तो बस क्रिया ही होती है| परंतु जब मन में अहंकार, राग, द्वेष और कामना अथवा वासना आ जाए तब उस क्रिया को कर्म कहा जाता है| और इस प्रकार के कर्म अच्छे या बुरे कहलाए जा सकते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप पुण्य अथवा पाप का बंधन बंध जाता है| जिसके फलस्वरूप हमें सुख अथवा दुख भोगने के लिए देह को धारण करना ही पड़ता है और जन्म मरण के चक्कर में हम बंध जाते हैं| संपूर्ण सृष्टि में कर्म के फल का विधान है, ना की क्रिया के फल का| एक अज्ञानी शिशु छोटे-छोटे जंतुओं को मार देता है तब उसकी यह क्रिया कहलाती है इसे कर्म के कायदे के बीच बांधा नहीं जा सकता| मनुष्य अनजाने में जीव जंतुओं की हिंसा कर लेता है पानी,दूध,सब्जी,अनाज,सांस लेने और छोड़ने में असंख्य जीव जंतुओं की हिस्सा हो जाती है| किंतु उन सब के पीछे हमारे मन की राग-द्वेष या आसक्ति  नहीं होती है इसलिए ये क्रियाये हमारे कर्मों में तब्दील नहीं होती इसलिए हम उसे हिंसा नहीं कह सकते|

सारांश-

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

कर्म के अस्तित्व के लिए क्रिया का होना आवश्यक है| क्रिया मन से, शरीर से, अथवा दोनों से हो सकती है| कलियुग में कोई भी क्रिया जिसे शारीरिक रूप से संपादित नहीं किया उसके कर्म के बंधन में हम नहीं बंधते,  वहां कर्म का बंधन नहीं लगता| किंतु कोई भी क्रिया मन तथा शरीर दोनों से संपादित हो जाती है तब वह क्रिया कर्म में परिवर्तित हो जाती है और उस पर कर्म का बंधन लागू हो जाता है |

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

DestinyV/s Efforts

Posted on May 28, 2021August 10, 2021 By Pradeep Sharma

प्रारब्ध बनाम पुरुषार्थ

DestinyV/s Efforts

मनुष्य को पुरुषार्थ नहीं करना चाहिए?

कर्म के सिद्धांत में पुरुषार्थ का अर्थ ठीक से समझे बिना कितने ही प्रारब्धवादी ऐसा मान बैठे हैं, कि मनुष्य को कोई भी पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं |प्रारब्ध में होगा तो अवश्य ही मिलेगा| परीक्षा में पास होने का प्रारब्ध होगा तो जरूर पास होंगे|अन्यथा कितनी ही मेहनत कर लो यदि फेल होने का प्रारब्ध होगा तो फेल ही होंगे इसलिए पढ़ाई लिखाई करने की तकलीफ लेने की जरूरत नहीं| ऐसी नासमझी के कारण न जाने कितने प्रारब्धवादी विद्यार्थी अपने जीवन को भगवान के ऊपर छोड़ देते हैं| एक पक्का प्रारब्धवादी विद्यार्थी जिसने संस्कृत का अभ्यास किया है या नहीं किया यह तो नहीं जानते किंतु संस्कृत भाषा में त्रुटि पूर्ण रूप से एक डायलॉग बोलता है –

पठतव्यम सो भी मर्तव्यम एवं न  पठतव्यम सो भी मर्तव्यम| तो फीर माथापची क्यों कर्तव्यम ?

ऐसे मूर्ख प्रारब्धवादियो ने पुरुषार्थ के सही अर्थ को समझा ही नहीं| परंतु कहां प्रारब्ध को महत्व देना है और कहां पुरुषार्थ को महत्व देना है इसका ज्ञान मनुष्य को अच्छे से समझ लेना चाहिए| आपको नौकरी मिली यह आप का प्रारब्ध हो सकता है पर आप ने नौकरी को किस नियति से की? यहां आपका पुरुषार्थ ही होगा| आपको अच्छा घर मिला पर आप घर में किस प्रकार से रहे या आपका पुरुषार्थ होगा| आपको धन मिला किंतु धन का आपने उपयोग किस प्रकार किया यह आपका पुरुषार्थ होगा| आपको संतान प्राप्ति हुई पर संतान की परवरिश आपने किस प्रकार की यह आपका पुरुषार्थ होगा| 

प्रारब्ध और पुरुषार्थ एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक

आज जो क्रियमान कर्म हम कर रहे हैं वह संचित कर्म में जमा हो जाता है और एक समय के बाद वह पककर हमारे सामने प्रारब्ध बन कर आ जाता है |  उसी प्रारब्ध को भोगने के लिए वैसा ही शरीर हमें प्राप्त होता है| इसलिए सच तो यह है कि पुरुषार्थ ही एक समय के बाद प्रारब्ध बनता है तो इस प्रकार से प्रारब्ध पुरुषार्थ का विरोधी नहीं है बल्कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ एक ही है| प्रारब्ध वर्तमान शरीर को भोग प्रदान करता है वही पुरुषार्थ मनुष्य की भविष्य की सृष्टि तैयार करता है| पुरुषार्थ ही आगे चलकर प्रारब्ध बनता है तभी अंग्रेजी में एक कहावत है-

Man is the Architect of his own fortune.

एक अंधे और लंगड़े की दोस्ती के रिश्ते के समान ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ का रिश्ता रिश्ता होता है| अंधे को रास्ता दिखता नहीं है और लंगड़ा उस रास्ते पर चल नहीं सकता इससे दोनों ही रास्ते पर अपनी यात्रा सुगमता से नहीं कर सकते| परंतु दोनों मित्रों ने विवेक और बुद्धि का प्रयोग कीया| अंधे व्यक्ति ने लंगड़े व्यक्ति को अपने कंधे पर बिठा लिया| लंगड़े व्यक्ति ने अंधे को रास्ता बताना शुरू किया और दोनों चल पड़े इस प्रकार दोनों ने रास्ते की यात्रा को सफलतापूर्वक पूरा किया|

जीवन यात्रा को भी सफलतापूर्वक पूरी करने के लिए पुरुषार्थ और प्रारब्ध एक दूसरे के पूरक बनते हैं|आप अपने स्वयं के प्रारब्ध से सुख और दुख को भोंगते हो|

अन्य कोई भी व्यक्ति आपको सुखी या दुखी नहीं कर सकता वह तो सिर्फ निमित्त मात्र है|

सुखस्य दुःखस्य न कोडपि दाता परो ददाति इति कुबुध्दिरेषा । 

अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः

हम पुरुषार्थ के माध्यम से अपने प्रारब्ध को ठीक कर सकते हैं| अंत में सारांश रूप से कहा जा सकता है कि पुरुषार्थ का अर्थ हुआ कि प्रारब्ध से जो कुछ हमें मिला हम उसका सम्मान करें और अपने वर्तमान जीवन में श्रेष्ठ पुरुषार्थ को धारण कर अपने नए भविष्य का व नये प्रारब्ध का नया निर्माण करें| अपनी तमाम इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य का क्रियाशील रहना पुरुषार्थ की ही एक परिभाषा है| मुख्य रुप से मनुष्य के जीवन में चार इच्छाएं होती है –

  1. धर्म
  2. अर्थ
  3. काम
  4. मोक्ष 

 हमे सदैव धर्म से ही अर्थ की प्राप्ति करनी चाहिए| ध्यान देने की बात यह है कि यहां धर्म की परिभाषा उससे भिन्न है जो आप समझते जिसकी चर्चा हम अपने अगले परिवेश में करेंन्गे | अधर्म से प्राप्त किया गया अर्थ अनर्थ बन जाता है| धर्म और मोक्ष के लिए हमें निरंतर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए धर्म और मोक्ष को कभी भी प्रारब्ध के ऊपर नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि अर्थ और काम की प्राप्ति को मनुष्य प्रारब्ध पर छोड़ दे तो ज्यादा बेहतर होता है| अर्थ एवं काम की इच्छा पूर्ति के लिए विशेष पुरुषार्थ करने की कोई आवश्यकता नहीं| यह वह इच्छाएं हैं जो प्रत्येक योनि में प्रत्येक जीवात्मा की होती हैं और जिसकी पूर्ति प्रत्येक जीवात्मा को मिलती है, किंतु प्रत्येक योनि में धर्म और मोक्ष की इच्छा पूर्ति करने के लिए पुरुषार्थ की कोई उपस्थिति दिखाई नहीं पड़ती केवल मनुष्य योनि में ही हम पुरुषार्थ करके धर्म और मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं| काम की इच्छा की पूर्ति तो प्रत्येक जंतु व प्राणी स्वत ही कर लेता है उसके लिए कोई विशेष प्रयास या पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती| 

परंतु हम सभी उल्टी दिशा में ही कार्यरत हैं| अर्थ और काम प्रारब्ध पर छोड़ देने के बदले हम दिन रात निरंतर काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ कर रहे हैं| अंततोगत्वा हम प्रारब्ध के आगे आकर ढीले पड़ जाते हैं| जहां धर्म और मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमेशा सतत जागृत रहकर के पुरुषार्थ करने की आवश्यकता होती है वहां हम उन्हें प्रारब्ध पर छोड़ देते हैं|

जब हम इन चारों इच्छाओं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में सामंजस्य स्थापित करते हैं| प्रारब्ध तथा पुरुषार्थ में समन्वय स्थापित करके जीवन यात्रा करते हैं तभी हमारा जीवन सफल होता है और हम अन्य योनियों से भिन्न कहलाते हैं| यदि हमारे जीवन में केवल और केवल अर्थ तथा काम की इच्छा होती है तो हमारा जीवन भी उन पशुओं की भांति ही है जो अपनी संपूर्ण जीवनलीला में केवल और केवल अर्थ एवं काम में लिप्त होते हैं यहां अर्थ का अभिप्राय धन से नहीं बल्कि जीवन जीने के लिए खाद्य सामग्री जुटाने से है जो कि प्रत्येक जल तो प्रत्येक जानवर करता है| 

कुशलता और अभिप्रेरणा

Relation of mind, intellect, soul and body

Posted on May 22, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

मन और आत्मा के सुख-दुख की अनुभूति के संबंध में-

मन बुद्धि आत्मा और शरीर का संबंध

नमस्कार मित्रों हमारा शरीर एक रथ है। और उस रथ में हमारी आत्मा एक रथी के रूप में है। हमारी आत्मा एक रथी के रूप में होने पर हमारा मन उस रथ का अर्थात उस शरीर रूपी रथ का एक घोड़े का काम करता है। और उस घोड़े पर लगाम के रूप में हमारी बुद्धि काम करती है। ऐसा प्राय तौर पर शास्त्रों में उल्लेख किया गया है। हमारी आत्मा हमारे शरीर रूपी रथ के माध्यम से समस्त जगत में विचरण करती है। और जीवन के सुख और दुख की अनुभूति शरीर रूपी रथ को करवाती है। जिसका अनुभव आत्मा स्वयं भी करती है। दोस्तों आपको बता दें कि हमारा मन कई प्रकार के संकल्प और विकल्प लेता है। तो उन संकल्प और उन विकल्पों में क्या श्रेष्ठ है और क्या श्रेष्ठ नहीं है ऐसा बुद्धि के द्वारा जांचा और परखा जाता है। बुद्धि सदा आत्मा के अधीन होती है। और आत्मा बुद्धि के माध्यम से घोड़े पर लगाम लगाती है। इसी प्रकार हमारे मन में अनेकों प्रकार के विचार आने पर भी हम कुछ विचारों को संपादित करते हैं और कुछ विचारों को संपादित नहीं करते, क्योंकि हमारी बुद्धि हमारे मन को यह ज्ञात करवाती है कि किन विचारों पर हमें आगे बढ़ना है और किन विचारों पर हमें आगे नहीं बढ़ना, परंतु कभी-कभी ऐसा होता है कि हमारा मन हमारी बुद्धि का उल्लंघन करता है। और हमारा मन बुद्धि के उल्लंघन के साथ ही हमारे आत्मा का भी उल्लंघन करता है इससे हमारा मन रूपी घोड़ा हर कहीं विचरण करने के लिए चला जाता है जिस पर कोई लगाम नहीं होती है। तो ऐसी स्थिति में मन को कुछ भी निकृष्ट परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। और निकृष्ट परिस्थितियों का सामना करने पर मन को आघात भी लग सकता है, और मन दुखी भी हो सकता है हमारा विषय है कि हमारा मन दुखी क्यों होता है? हमें मन को तकलीफ क्यों होती हैं? हमारा विषय है कि हमारे जीवन में दुख प्राय तौर पर क्यों आते हैं? तो इसका सीधा-सीधा अगर उत्तर हम ढूंढे तो वह होगा हमारा मन जब जब हम हमारे मन को बुद्धि के नियंत्रण से मुक्त कर देते हैं तब तक मन उन्मादी हो जाता है। और मन हर कहीं भटकने लगता है और भटकता हुआ वह इस शरीर को और आत्मा को दोनों को निकृष्ट परिस्थितियों में ले जाता है। और निकृष्ट परिस्थितियों में जाने के बाद यह परिणाम आत्मा के लिए और शरीर के लिए दोनों के लिए कष्टदायक होते हैं। मित्रों आपने अपने जीवन में अनुभव किया होगा कि कई बार हमें ऐसा लगता है कि काश मैं यहां नहीं आया होता तो कितना अच्छा होता? ऐसा तभी लगता है क्योंकि उस वक्त आप का मन उन्मादी हो गया था। और आपका मन आपकी बुद्धि के नियंत्रण से मुक्त हो करके और वहां आपको और आपकी आत्मा को मतलब आपके शरीर को और आपकी आत्मा को दोनों को वहां ले गया। और वहां कोई अनहोनी हो जाने पर किसी से झगड़ा फसाद हो जाने पर, आपका मन पश्चाताप करता है कि काश मैं यहां नहीं आया होता? तो दोस्तों सदा अपने मन को अपनी बुद्धि और अपनी आत्मा के अधीन रखो आपकी बुद्धि और आपकी आत्मा, आपके मन को जो आदेश जो निर्देश दे उसी का पालन करो

कुशलता और अभिप्रेरणा

Sobhasaria Spotlight

Posted on May 20, 2021May 27, 2021 By Pradeep Sharma

कौन है कहां है वो
जिसकी तुम्हे तलाश है।
तेरे हर दर्द का इलाज
बस तेरे ही तो पास है
खुद को जरा सम्हाल तू
क्यूं खुद से बेआवाज है
तेरे हर सवाल का जवाब
बस तेरे ही तो पास है।
         ✍✍
🙏🙏राजेश गौड़🙏🙏

कुशलता और अभिप्रेरणा

माँ का कर्ज तो नही उतार सकते मगर उसे हर पल याद तो कर सकते हैं।

Posted on May 19, 2021May 28, 2021 By Pradeep Sharma
माँ । कविता।  Every Day is Mother’s Day. 

डॉ राजेश गौड़ , शोभासरिया ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूसंस , सीकर (राज)

वो जिसकी घर में घुसते ही
जरा सी चोट लगते ही
हमें सबसे पहले याद आती है

वो जो एक अलमस्त आजाद लड़के को
बान्ध कर रिश्तों की डोर में
पहले घर का मालिक
और फिर हमारा पिता बनाती है

वो जिसके हाथ लगते ही बोल उठती है दीवारें
चमक जाता है फर्श
और बाकी सब चीजे भी जैसे घरेलू बन जाती है

हमारे भूले बिसरे बचपन के किस्से याद रहते हैं जिसे
जो कभी हमे और कभी हमारे बच्चों को
चटखारे लेकर खूब सुनाती है
कभी दादी, कभी नानी तो कभी उनकी दोस्त बन जाती है

गीले में खुद सोकर
हमारे हिस्से परेशानी खुद ढोकर
हमारे दाग धोकर
हमारे तन को, हमारे मन को और हमारे घर को जो स्वच्छ बनाती है

जिसे पहला गुरु कहते हैं सभी
जिसके पैरों में दुनिया जन्नत बताती है
जो हमारी मुस्कान से ही हो जाती है खुश
हमारे पसंद का खाना जो दिन-रात बनाती है
हमें पीटकर ख़ुद आंसू बहाती है जो हरदम
मगर उसी की गोद में हमें सुकूं भरी नींद आती है

मोबाइल के जमाने में हर रिश्ता दूर हो चुका हो भले
वो मां ही है जो हमें पहले खुद से
और फिर दुनिया के सब रिश्तो से मिलाती है
साल का सिर्फ एक दिन मदर्स डे नहीं हो सकता हमारे और उसके लिए
वो मां ही है जो हमारे हर दिन, हर साल को जिन्दा बनाती है।

✍✍ राजेश गौड़

कुशलता और अभिप्रेरणा

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