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SABHI KARMA KRIYA HOTE HAI PAR SABHI KRIYA KARMA NAHI HOTE

Posted on May 29, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

क्रिया और कर्म इन दोनों शब्दों में भेद को विशेष रूप से समझना जरूरी है। शारीरिक क्रिया को देखा जा सकता है। परंतु मानसिक क्रिया को देख पाना मुश्किल है।

क्रिया के तीन प्रकार हो सकते हैं। 

1. केवल शारीरिक क्रिया 

2. केवल मानसिक क्रिया 

3. मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया

  1. शारीरिक क्रिया दो प्रकार की होती है- 

1.अनैच्छिक शारीरिक क्रियाएं और 2.ऐच्छिक शारीरिक क्रियाएं

शरीर की बहुत सी क्रियाएं ऐसी होती हैं जो तब भी संपादित होती ही है जब इस प्रकार की कोई इच्छा ना भी करें तो ऐसी क्रियाओं को अनैच्छिक क्रिया कहते हैं।

जैसे आपके ह्रदय की धड़कनों का चलना जैसे आपके श्वास लेने की क्रिया का होना, जैसे आपके पाचन क्रिया का होना, जैसे आपकी आंखों की पलकों का झपकना, यह सब क्रियाएं वह क्रियाएं हैं जो आपकी इच्छा ना हो तो भी निरंतर आपके शरीर से होती है इसे आप रोक नहीं सकते यदि आप इन क्रियाओं को रोकने का प्रयास करेंगे तो हो सकता है कि आप की मृत्यु हो जाए।

शरीर कितनी ही क्रियाए हमारी इच्छा से करता है| उदाहरण के लिए हाथ को खड़ा करना, पांव को लंबा करना, एक पाव पर खड़े रहना, सिर के बल खड़े रहना, दौड़ना, कूदना इत्यादि और कितनी ही क्रियाएं हमारी इच्छा के बिना करता है जैसे हृदय का धड़कना, श्वास-लेना, रक्त धमनियों में रक्त का प्रवाह होना|इन सभी एच्छिक और अनेछिक क्रियाओं में जहां हमारा मन शामिल नहीं होता, और मन को इन क्रियाओं के प्रति कोई राग द्वेष नहीं होता इसलिए गीता की भाषा में इसे कर्म नहीं कहा जा सकता|

  1.  मानसिक क्रिया:

कितनी ही क्रियाओं को आप केवल मन से ही करते हैं| और उन क्रियाओं को शरीर नहीं करता| उदाहरण के लिए आप मन में कोई विचार करते हो| मन में यदि किसी के लिए भला अथवा बुरा सोचते हो या किसी को गाली देते हो| यह सभी मानसिक क्रिया जब तक शारीरिक क्रिया में परिणित ना हो तब तक यह केवल मानसिक क्रिया के रूप में ही रहती है| और इस प्रकार से यह क्रिया कर्म की व्याख्या में नहीं आ सकती| क्रिया के भीतर कोई उद्देश्य या अहंकार शामिल हो तभी वह कर्म बनता है|

अपने मन में कोई गुनाह करने का विचार किया, किसी को थप्पड़ मारने का विचार किया किंतु जब तक शारीरिक रूप से आपका हाथ उस व्यक्ति के गाल के ऊपर तमाचा ना मार दे तब तक यह कर्म गुनाह नहीं बनता| इसलिए फोजदारी कानून में सरकार ने एक प्रोविजन रखा है-

Intention to commit an offence is not an offence.

 अपराध करने मात्र का इरादा (मानसिक क्रिया) जो कि अपराध (कर्म) नहीं कहा जा सकता|किसी भी वकील से इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि अपराध करने का विचार करना अपराध करना नहीं होता|

यह फौजदारी कानून कलियुग में लिखा हुआ है इसलिए कलयुग का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी भी रामायण में कहते हैं कि-

“कलियुग कर यह पुनीता प्रतापा, मानस पुण्य होई नहीं पापा |”  

(उत्तरकाण्ड -103)

कलयुग में मानसिक पुण्य करो तो पुण्य होगा किंतु केवल मानसिक पाप करो तो पाप नहीं होगा इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को मानसिक पाप करने की छूट है|

कहने का अभिप्राय यह है कि कलियुग में मनुष्य के मानसिक पाप का त्याग किया जा सकता है| यदि क्षण भर के लिए मन में कदाचित अपराध का विचार आए तो उसका त्याग किया जा सकता है| उसे शारीरिक कर्म में बदलने से पहले अगर हम त्याग देते हैं और इश्वर से क्षमा प्रार्थना कर ले तो निश्चित ही हम मानसिक पाप से मुक्त हो सकते है| 

शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्था केवल कलियुग में ही है ऐसी व्यवस्था सतयुग में नहीं होती है|

लेकिन कोई व्यक्ति जानबूझकर मानसिक पाप करता है और निरंतर मानसिक प्राप्त करता रहता है| तो एक समय ऐसा जरूर आता है जब उसका मानसिक पाप उसके शरीर को धक्का देकर अनिवार्य रूप से शारीरिक पाप  क्रिया में लिप्त कर देता है और वह शारीरिक क्रिया कर्म बन जाती है अतः वह कर्म क्रियामान कर्म अथवा संचित कर्म में जमा होकर प्रारब्ध बनकर छाती के सामने आकर खड़ा हो जाता है| फिर हंसते हंसते किए गए पाप को मनुष्य को रोते-रोते भोगना पड़ता है, इस से छूटने का और कोई विकल्प या उपाय नहीं होता बल्कि इसे भोगना ही पड़ता है|

  1.  मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया-

मन की कामनाओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए, राग और द्वेष से प्रेरित होकर और स्वार्थ पूर्ति के लिए की गई तमाम शारीरिक क्रियाओं को कर्म कहा जाएगा और इस प्रकार के क्रियामान कर्मों को पाप-पुण्य अथवा  सुख और दुख के रूप में भुगतना ही पड़ेगा|

इस प्रकार के क्रियमाण कर्म हो सकता है तात्कालिक फल ना दें| यह भी हो सकता है कि यह संचित कर्मों में जमा हो जाए, और प्रारब्ध बनकर हमें कर्म का फल देने के बाद ही शांत हो|

किसी भी क्रिया को अच्छी या बुरी नहीं कहा जा सकता| कोई भी क्रिया अच्छे अथवा बुरी नहीं होती क्रिया तो बस क्रिया ही होती है| परंतु जब मन में अहंकार, राग, द्वेष और कामना अथवा वासना आ जाए तब उस क्रिया को कर्म कहा जाता है| और इस प्रकार के कर्म अच्छे या बुरे कहलाए जा सकते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप पुण्य अथवा पाप का बंधन बंध जाता है| जिसके फलस्वरूप हमें सुख अथवा दुख भोगने के लिए देह को धारण करना ही पड़ता है और जन्म मरण के चक्कर में हम बंध जाते हैं| संपूर्ण सृष्टि में कर्म के फल का विधान है, ना की क्रिया के फल का| एक अज्ञानी शिशु छोटे-छोटे जंतुओं को मार देता है तब उसकी यह क्रिया कहलाती है इसे कर्म के कायदे के बीच बांधा नहीं जा सकता| मनुष्य अनजाने में जीव जंतुओं की हिंसा कर लेता है पानी,दूध,सब्जी,अनाज,सांस लेने और छोड़ने में असंख्य जीव जंतुओं की हिस्सा हो जाती है| किंतु उन सब के पीछे हमारे मन की राग-द्वेष या आसक्ति  नहीं होती है इसलिए ये क्रियाये हमारे कर्मों में तब्दील नहीं होती इसलिए हम उसे हिंसा नहीं कह सकते|

सारांश-

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

कर्म के अस्तित्व के लिए क्रिया का होना आवश्यक है| क्रिया मन से, शरीर से, अथवा दोनों से हो सकती है| कलियुग में कोई भी क्रिया जिसे शारीरिक रूप से संपादित नहीं किया उसके कर्म के बंधन में हम नहीं बंधते,  वहां कर्म का बंधन नहीं लगता| किंतु कोई भी क्रिया मन तथा शरीर दोनों से संपादित हो जाती है तब वह क्रिया कर्म में परिवर्तित हो जाती है और उस पर कर्म का बंधन लागू हो जाता है |

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा Tags:#karma theory #theory of karma #karma aur kriya

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