श्री सालासर बालाजी मंदिर की कथा, महिमा व इतिहास
मेलों की नगरी श्री सालासरधाम नगरी
राजस्थान का सालासर धाम मेलों की नगरी है। सिद्धपीठ बालाजी तीर्थ में आने वाले उत्साही लोगों के लिए यहां प्रत्येक शनिवार, मंगलवार और पूर्णिमा को मेला लगता है। चैत्र, अश्विन और भाद्रपद के लंबे हिस्सों में, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी और पूर्णिमा पर विशाल मेला लगता हैं।
सालासर के हनुमानजी उत्साही लोगों के बीच ‘श्री बालाजी’ के नाम से प्रमुखता से जाने जाते हैं। देश के कोने-कोने से प्रशंसक हनुमान जयंती के मेलों के अवसर पर असाधारण दर्शन के लिए श्रीसालसर-बालाजीधाम की ओर चहलकदमी करते हैं, पैदल चलते हैं, कोई पेट के बल सरक कर आगे बढ़ता है, तो कोई रास्ते में साष्टांग प्रणाम करता है। कोई ऊँट, रेलगाड़ी,कोई परिवहन कि बसों में, तो कोई जीप, वाहन आदि से यात्रा करते हैं, शायद सालासर एक ऐसा सागर है जहाँ जलमार्गों की तरह प्रशंसकों की भीड़ प्रवेश करती है। सामान्य रूप से लहराता हुआ समूह भक्तो का संघ , जय बालाजी के मनमोहक जयकारे, तीर्थ में ढोल-नगाड़ों की उद्देश्यपूर्ण ध्वनि, कतार में खड़े रहने वालों का उत्साह और उत्साह बढ़ाती है यही इस धाम की विशेषता है।
श्री सालासर बालाजी की प्रतिमा का स्वरुप
बालाजी के दर्शन के लिए लड्डू, पेड़ा, बताशा, मखाना, मिश्री, मेवा, ध्वजा-नारियल आदि सामग्री से लाइन में लगे प्रेमी बालाजी के दर्शन के लिए काफी समय से जयकारे लगाते हुए आगे बढ़ते हैं। बालाजी की विग्रह प्रतिमा विलक्षण है जो कहीं और असंभव है। सिंदूर से लगाई गई पहली मूर्ति पर वैष्णव साधु की मूर्ति बनाई गई है। मंदिर पर उर्ध्वपुंड्रा तिलक, लंबी झुकी हुई भौहें, चेहरे पर घने बाल वाली मूंछें, कानों में कर्ल, एक हाथ में गदा और दूसरे में एक ध्वजा , और उत्कृष्ट आँखें भीड़ के मूल में जेसे मानो सभी के चित्त में झांकती हैं; यह बालाजी का असाधारण स्वरुप है। पहले प्रकार की मूर्ति कुछ अलग थी। उसमें श्रीराम और लक्ष्मण हनुमानजी के कंधों पर विराजमान थे। बालाजी का यह वर्तमान स्वरूप संतशिरोमणि मोहनदासजी की निधि है।
बालाजी सबसे पहले शुरू में मोहनदासजी को वैष्णव पवित्र व्यक्ति के रूप में दिखाई दिए। बालाजी मोहनदाश जी को अपना रूप बदल कर दर्शन देते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी को उनके दर्शन कोढ़ी के रूप में हुए। जिस समय बालाजी कि मुलाकात भगवान श्री राम से हुई, तब वे विप्र-वेश में थे। मोहनदासजी के मन में प्रथम दर्शन का प्रभाव इस प्रकार था कि वह उनके मानस और मस्तिष्क में हमेशा के लिए अंकित हो गया। वह अपनी चिंतनशील अवस्था में भी समान संरचना में दर्शन करने लगे। बार-बार देखने पर उस प्रारूप में इतनी अटूटता अनन्य श्रध्दा थी कि वह किसी अन्य संरचना को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे। बालाजी वही करते हैं जो भक्त चाहते हैं। उनकी अपनी कोई चाहत कहां है तो बालाजी भी भक्त के फैसले के रूप में सामने आए। और इस प्रकार सालासर में यह उनका स्थायी स्वरूप बन गया।
बालाजी भी कम विलक्षण नहीं हैं। दर्शन जिस स्वरूप में होता है उसी स्वरुप के अनुसार ही श्री बालाजी भोग स्वीकार करते है। बचपन में जब मोहनदासजी रुलियानी की बीड (गोचरभूमि) में गाय चरा रहे थे, बालाजी ने शुरुआत में उन्हें एक हिंदू संत के रूप में आभास दर्शन दिया था । उस समय, मोहनदासजी ने उन्हें मोठ-बाजरे की एक खिचड़ी भेंट की, जिसे माँ ने उनके साथ दोपहर के भोजन के लिए भेजा था। संत-वेशधारी बालाजी ने उस खिचड़ी को बड़े चाव से पाया था। वे प्यार से दी जाने वाली उस खिचड़ी की शैली व् स्वाद को नहीं भूले। बालाजी सिर्फ प्यार के भूखे हैं। प्रेम के द्वारा ही भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश किया जा सकता है। स्नेह का कंपन आराध्य के केंद्र को एक लहर की तरह छूता है और प्रभावित करता है। मोहनदासजी द्वारा भेंट की गई मोठ-बाजरे की वह खिचड़ी सालासर के बालाजी का स्थायी भोग बन गई। वह परंपरा आज भी जारी है। बालाजी की प्रसन्नता के लिए सूखे मेवे और मिठाइयों के साथ मोठ-बाजरे की खिचड़ी का विशेष भोग निःसंदेह चढ़ाया जाता है। शौकीन और पीठासीन देवत्व के बीच यह भावनात्मक जुड़ाव सालासर के बालाजीधाम की विशिष्ट विशेषता है।
श्री सालासर बालाजी मंदिर का निर्माण
सालासर के बालाजी मंदिर को संवत 1815 में मोहनदासजी ने बनवाया था। मंदिर परिसर के भीतर उनका लेख उनकी श्रद्धा, भक्ति, सेवा और समर्पण को दर्शाता है। उनकी स्मृति को भक्तों के द्वारा संरक्षित किया गया है।
मोहनदासजी की धुणा और रहवास कुटिया
मंदिर के पास ही मोहनदास जी का धूना है, जहां कोई भी वहां बैठकर तपस्या करना चाहेगा। यह अभी भी हमेशा के लिए रोशन (प्रज्वलीत) है। मंदिर के अखंडदीप को भी उनके द्वारा ही प्रथम प्रज्ज्वलित किया गया था। धुने के पास उनकी एक झोपड़ी थी, जिसका वर्तमान में एक पक्के निर्माण में जीर्णोधार हुआ है। इसमें उनकी मूर्ति भी लगाई गई है। जो भक्त श्री सालासर धाम में आता है, तब बालाजी के दर्शन के बाद मोहनदासजी कुटिया में दर्शन हेतु अवश्य जाता है।