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Tag: #कर्म के सिद्धांत #theory of karma #sanchit karma # kriyamaan karma #prarbdh karma #संचित कर्म #क्रियामान कर्म #प्रारब्ध

Disposal of Karma

Posted on June 5, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

कर्म कि गती (कर्म का निपटान)

वह कौन से कर्म है जो हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते ?

  1. अबोधता एवं अज्ञानता की स्थिति में किए गए कर्म
  2. अचेतन अवस्था में किए गए कर्म
  3. मनुष्य को छोड़कर अन्य योनियों में किए गए कर्म
  4. मैं करता हूं के अभिमान को छोड़कर किए गए कर कर्म
  5. सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म
  6. निष्काम भावना से किए गए कर्म
  • अबोधता, अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए कर्म

बाल्यावस्था में किए गए कर्म और अचेतन अवस्था में किए गए कर्म या पागलपन में किए गए कर्म, राग द्वेष की प्रेरणा से नहीं किए गए थे अतः राग द्वेष की प्रेरणा के बिना इन कर्मों को संचित कर्मों में जमा नहीं होना पड़ता। यदि कोई छोटा बच्चा अग्नि में हाथ डाले तो वह जलेगा जरूर और कर्म तात्कालिक फल देगा। किंतु यही कर्म घूम कर वापस उसके संचित कर्मों में जमा नहीं होगा और दूसरी बार फल देने के लिए सामने नहीं आएगा।  3 वर्ष का छोटा बच्चा खाट में उछलता है, कूदता है और वहीं पर 3 वर्ष का अन्य बच्चा सो रहा है, यदि उसके गले पर उछलते हुए बच्चे का पांव लग जाए और वह बच्चा मर जाए तो उस 3 वर्ष के बच्चे पर इंडियन पेनल कोड की धारा 302 के मुताबिक हत्या का केस नहीं चल सकता, क्योंकि इस कर्म में कोई राग द्वेष नहीं था अतः इस प्रकार के कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते अतः शिशु अवस्था में किसी बच्चे ने किसी दस्तावेज पर कोई काम किया हो तो उसे कोर्ट मान्य नहीं करती।

मित्रों यहां ध्यान देने की बात है की अबोधता,अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए सभी क्रियामान कर्मों का तात्कालिक फल जरूर होता है। किंतु यह संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यह कर्म भविष्य में फल देने हेतु सामने प्रस्तुत नहीं होते बल्कि इनका जो भी परिणाम होता है वह तुरंत प्रभाव से हमें मिल जाता है। 

अर्थात मनुष्य का कोई भी ऐसा कर्म जो किसी प्रकार की राग द्वेष शक्ति इच्छा की भावना से जुड़ा हो वह कर्म संचित कर्म में संचित हो सकता है। वह भविष्य में फल देने के लिए आपके सामने प्रस्तुत हो सकता है।

  • मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनि में किए गए कर्म

मनुष्य योनि के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में किए गए कोई भी कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते क्योंकि मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य तमाम योनीया भोग योनीया कहलाती है।मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में जीवात्मा अपने पूर्व संचित कर्मों को प्रारब्ध के रूप में भोग करके ही देह से छुटकारा पाती हैं।अतः इनके कोई भी नए क्रियामान कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

घोड़े, गधे, कुत्ते, बिल्ली, पशु-पक्षी, इत्यादि योनियों में जीव मात्र प्रकृति के अनुसार ही अपना जीवन जीते हैं इससे यह अपनी योनियों, में केवल और केवल प्रारब्ध कर्म को ही भोगते है।और इस प्रकार की योनियों में क्रिया मानकर्म तात्कालिक फल देते हैं।इससे यह बाद में संचित कर्म में जमा नहीं होते।उदाहरण स्वरूप गधा यदि किसी को लात मारे तो बदले में वह दो लकड़ी की फटकार खा लेता है ऐसा नहीं होता कि उसकी यह लात मारने की क्रिया संचित कर्मों में जमा हो जाएगी।यदि किसी खेत में पशु प्रवेश कर जाता है और फसल को नुकसान करता है तो बदले में खेत का मालिक उस पशु को लकड़ी से पीटकर भगा देता है पशु का खेत में प्रवेश करना जो कर्म है उसका तात्कालिक फल वह पा लेता है अतः उसका कोई भी कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होता। पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा मछली जलचर नभचर और कई प्रकार के जीव भोगयोनि ही कहलाते हैं।अतः इनके नए क्रियामान कर्म कभी भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।देव योनी भी एक प्रकार से भोग योनि ही है।देवता भी स्वयं के पुण्य कर्मों के आधार पर सुख भोगते हैं। देवताओं के क्रियामान कर्म भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।जिनके तमाम पाप नष्ट हो चुके हैं और जिनके सिलक में  मात्र पुण्य कर्म ही बचे हैं ऐसे जीव देव योनी में  जिसे आप भोगयोनी  कह सकते हैं, स्वर्ग में जाकर दिव्य भोग भोंगते हैं और पुण्य के क्षय होते ही मृत्यु लोक में वापस आ जाते हैं। 

  • मैं करता हूं कि अभिमान को छोड़कर किए गए कर्म

ऐसे कर्म हमेशा अकर्म बन जाते हैं। इस प्रकार के कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यदि आप अच्छे कर्म करते हैं तो उसे पुण्य कहेंगे और यदि आप बुरे कर्म करते हैं तो उसे आप पाप कह सकते हैं। पुण्य को भी भोगना पड़ता है और पाप को भी भोगना पड़ता है किंतु ऐसे कर्म जिसमें आपकी यह भावना ना हो कि यह आप कर रहे हैं तो ऐसे कर्मों को सुकृति कहते हैं अर्थात यह कर्म अकर्म कहलाते हैं। जब एक हत्या का अपराधी कोर्ट में आता है तब न्यायाधीश उस पर अभियोग का निर्णय सुनाते हैं और उसे फांसी की सजा दे दी जाती है। तब इसका मतलब यह नहीं कि उस फांसी की सजा का कोई कर्म बंधन उस जज पर लागू होगा, क्योंकि यहां पर जज के मन में यह भावना नहीं है कि यह काम मैं कर रहा हूं बल्कि यहां जज के मन में यह बात है कि यह कर्म एक विधान के आधार पर कर रहा हूं और विधान के लिए कर रहा हूं इस कर्म को विधान के द्वारा किया जा रहा है। अतः इस प्रकार के कर्मों का बंधन जज पर लागू नहीं होता ऐसे कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यहां जज को ऐसा कोई मिथ्या अभिमान नहीं होता अतः जज इस कर्म के बंधन से मुक्त है यह कर्म जज के संचित कर्मों में जमा नहीं होता। 

अतः भगवान गीता में अर्जुन से कहते हैं कि तुम इस धर्म युद्ध में अनेकों संहार करोगे किंतु तुम पर यह कर्म बंधन लागू नहीं होगा क्योंकि तुम इन सभी का संहार सिर्फ यह सोचकर के करो कि तुम स्वयं करता नहीं हो अतः तुम इस कर्म के बंधन से मुक्त रहोगे।

मैं ही हूं अथवा मैं ही करता हूं के अभिमान से किए गए सभी कर्म कर्म बंधन में हमें बांधते हैं। ऐसे कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। किंतु ऐसी भावना के विरुद्ध यदि हम स्वयं को निमित मात्र समझें और फिर कर्म करें तो हमें सुकृति की प्राप्ति होगी । 

  • सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म

इस संसार में ऐसे बहुत से कर्म है जो पाप कर्मों में होने के बावजूद क्योंकि वह जगत एवं सृष्टि के कल्याण के लिए होते हैं अतः ऐसे पाप कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। झूठ बोलना पाप कर्म समझा जाता है किंतु झूठ बोलना जब जरूरी हो तब ऐसा झूठ बोलना आपको पाप कर्म में लिप्त नहीं होने देता। तब यह कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होता।भगवान होते हुए भी श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म युद्ध में धर्मराज को झूठ बोलने की प्रेरणा दी और कहा कि कहिए कि अश्वत्थामा मारा गया नरः या कुंजा तब युधिष्ठिर ने ऐसा कहा। इसमें श्री कृष्ण का स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं था यदि पांडव जीत जाते तो उसमें कोई हिस्सा श्रीकृष्ण को नहीं मिलता। ना कोई कमीशन या दलाली मिलती। और इस झूठ को बोला जाए तो द्रोणाचार्य मर जाएगा मात्र ऐसा भी नहीं था। बल्कि इस झूठ से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा और इस धर्म युद्ध में धर्म की विजय होगी मात्र इस भावना के साथ यह झूठ बोला गया था।

हां इस झूठ बोलने से एक तात्कालिक परिणाम जरूर सामने आया कि इससे धर्मराज युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा में राई के दाने जितनी खरोच लगी किंतु इस झूठ के प्रणेता श्री कृष्ण को इस कर्म का बंधन नहीं हुआ और न उन्हें इसका फल भोगने के लिए कोई पुनर्जन्म लेना पड़ा।

  • निष्काम भावना से किए गए कर्म

कामना से रहित किए गए कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य जो कोई कर्म करता है तो निश्चित ही कोई कामना से, इच्छा से, या आशा से, अथवा अपेक्षा से ही करता है और उसमें उस व्यक्ति का दोष नहीं। मनुष्य फल की आशा, इच्छा, कामना रखे या ना रखे तो भी कर्म फल दिए बिना नहीं छोड़ता, ऐसा कर्म का सिद्धांत जान पड़ता है। किंतु फिर भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो कर्म तो करते हैं बावजूद कर्म के फल की कोई इच्छा नहीं रखते। यह बात बड़ी विचित्र है किंतु सच है जैसे मनुष्य पाप तो करता है परंतु उसके फल को पाने की इच्छा नहीं करता मनुष्य चोरी तो करता है, किंतु वह पुलिस से पकड़वाना नहीं चाहता, उसे रिश्वत लेनी है, किंतु रिश्वत लेते पकड़ा नहीं जाना, और उसका कोई फल या कोई सजा नहीं चाहता इसका अभिप्राय यह नहीं कि यह निष्काम कर्म हुए। मनुष्य को पाप करने की इच्छा होती है परंतु उसके फल को भोगने की इच्छा नहीं। मनुष्य को  केवल पुण्य कर्म का फल चाहिए, लेकिन पुण्य कर्म को करना नहीं चाहता और पाप कर्म को करने वाले को फल की कामना नहीं होती, तो इसे हम ऐसा नहीं कह सकते कि वह निष्काम भावना से कर्म कर रहा है, निष्काम कर्म का मतलब होता है शास्त्र से विहित कर्म, धर्म की मर्यादा में रहकर राग और द्वेष की प्रेरणा के बिना, मैं करता हूं के अभिमान के बिना सृष्टि के कल्याण के लिए स्वयं के नीज स्वार्थ को छोड़कर किए गए काम निष्काम भावना से कर्म कहलाते हैं। एक मां अपनी संतान की परवरिश और सार संभाल जो करती हैं वह निष्काम भावना से किए गए कर्मों की श्रेणी में आते हैं ।शास्त्र सम्मत ऐसा कोई भी काम या कर्म जिसके फल की आशा न हो किंतु उसे हम कर रहे हैं वह सभी काम निष्काम भाव से किए गए काम या कर्म कहलाते हैं।इस प्रकार के कर्म भी हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

कर्तव्य बोध से किए गए सभी कर्म जिसमें फल की कोई आशा अपेक्षा इच्छा हो ऐसे सभी कर्म  निष्काम भावना से किए गए कर्म कहलाते हैं। और ऐसे कर्मों का बंधन हम पर लागू नहीं होता। यह कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते। 

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

We are bound to avail the result of our own KARMA

Posted on May 24, 2021June 3, 2021 By Pradeep Sharma

 “हमे अपने कर्मो के कर्मफलों को भोगना ही पड़ता है”

कर्म किया और समझो कि उसका फल चिपक गया।  तत्पश्चात उसको भोगने के अलावा और कोई छुटकारा नहीं होता । कर्म-फल से दूर भागने की कितनी भी कोशिश कर लो आपको कर्म का फल लेना ही होगा ।  कर्म आपको फल दिए बिना शांत नहीं होता । हो सकता है आप बहुत बुद्धिमान हो, हो सकता है दुनिया की कोर्ट में आप बहुत अच्छे बुद्धिजीवी वकील को अपने कार्य के लिए नियुक्त कर सकते हो । दुनिया की कोर्ट में आप बड़े से बड़ा कैसे जीत सकते हो । किंतु कुदरत की कोर्ट में जब आपकी हाजिरी लगेगी, तब वहां ना कोई वकील की दलील चलेगी और ना ही वहां कोई सिफारिश चलेगी ।

बहुत वर्षों के पहले की बात है मित्रों । मेरे एक मित्र हुआ करते थे – वह अपने समय में अहमदाबाद में कोर्ट के जज हुआ करते थे । चूँकि वह जाति से ब्राह्मण और प्रकांड  विद्वान एवं वेद अभ्यासी थे तो उनका इश्वर से जुडी बातो में काफी रूचि रहती थी।  मैं कुछ समय के लिए अहमदाबाद में रुका था जब मैं अपने निजी कार्य के लिए अहमदाबाद गया था। तो वहां एलिस ब्रिज एक जगह का नाम है, जहां साबरमती नदी के ऊपर एक ब्रिज बना हुआ है।  ब्रिज के एक छोर पर एक होटल है जिसका नाम होटल एलिस है जिसके मालिक एक मुस्लिम तबके से आते हैं । उन दिनों मेरी उनके साथ भी बड़ी घनिष्ठ मित्रता हो चुकी थी । मैं रोज सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए साबरमती नदी के किनारे पर जाया करता था । वहीं पर मेरी मुलाकात सेशन कोर्ट के उस जज से हुई थी। क्योंकि वे अपने प्रोफेशन से रिटायर हो चुके थे और अपनी वृद्धावस्था के अंतिम दौर पर थे।  एकाएक मेरी उनके साथ बातचीत होने लग गई तब ईश्वर की कर्म विधान के विषय में उनसे मेरी बातचीत हुई । उन्होंने अपने एक अनुभव को मेरे साथ साझा किया।  वही अनुभव है आज आपके साथ साझा कर रहा हूँ –

हमेशा की तरह एक दिन सुबह दिन निकलने से पहले ही कुछ अंधेरे के समय जज साहब मॉर्निंग वॉक पर निकले थे और उस वक्त साबरमती नदी का किनारा इतना विकसित नहीं था जितना आज  दिखाई पड़ता है।  पर फिर भी प्रकृति प्रेमी नदी किनारे पर सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए आया करते थे।  जज साहब किसी पेड़ के नीचे बैठकर के योग प्राणायाम कर रहे थे तभी वहां एक व्यक्ति अंधेरे का फायदा उठाकर किसी अन्य व्यक्ति को पीछे से खंजर से वार करता है और वह व्यक्ति खंजर के वार से घायल होकर गिर पड़ता है।  जिसने खंजर से वार किया था उस व्यक्ति को जज साहब पहचान लेते है। किंतु वह अपराधी वहां से भाग निकलता है। 

मामला फिर पुलिस स्टेशन में पहुंचता है और पुलिस डिपार्टमेंट इस मामले पर कार्रवाई करती है। छह माह  के पश्चात पुलिस अनुसंधान पूरा होता है।  पुलिस के द्वारा एक अभियुक्त को पकड़ा जाता है और उसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है और उस पर अभियोग चलाया जाता है। 

पुलिस डिपार्टमेंट के द्वारा अभियुक्त पर अभियोग चलाया जाता है और कई कानूनी दस्तावेज बतौर सबूत पेश किए जाते हैं जिससे यह साबित और सिद्ध होता है कि- ठीक वही व्यक्ति अपराधी है और उसी व्यक्ति ने ही अन्य व्यक्ति की हत्या की थी। 

 किंतु आश्चर्य की बात यह है कि सेशन जज इस बात को जानते थे कि वह व्यक्ति अपराधी नहीं हैं और वह व्यक्ति वास्तविक अपराधी ना होने के कारण सेशन जज निर्णय सुनाने में असमंजस में थे । धर्म संकट में थे । वे इस संशय में थे कि वह क्या करें क्योंकि सभी सबूत दस्तावेज और गवाह यह साबित करते थे कि वह खुनी, हत्यारा और दोषी है । 

सभी गवाह सबूत और दस्तावेज बनावटी थे। किंतु सेशन जज क्या कर सकते थे?  सेशन जज इस बात के लिए मजबूर थे क्योंकि न्यायालय में निर्णय सबूत गवाह और बयानों के आधार पर होते हैं। 

अब समय आ ही गया था निर्णय सुनाने को लेकिन सेशन जज ने अपनी आत्मा की तसल्ली करने के लिए निर्णय सुनाने से पहले उस अपराधी को अपने चेंबर में एकांत में बुलाया। वह व्यक्ति सेशन जज के चैंबर में जाता है वह जोर-जोर से गिड़गिड़ा कर रोता है और कहता है कि जज साहब मैंने खून नहीं किया है मैं अपराधी नहीं हूं मैं हत्यारा नहीं हूं और मैं इस खून का दोषी नहीं हूँ ।  तभी जज साहब भी यही कहते हैं कि हां मैं यह जानता हूं कि तुम हत्यारे नहीं हो तुम खुनी नहीं हो और यह खून तुमने नहीं किया है क्योंकि यह खून जिसने किया है उसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं। 

जज ने उस व्यक्ति से बड़ी मार्मिकता से और भावनाओं से ओतप्रोत होकर एक बात कही कि देखो बच्चे निर्णय तो वही होगा जो सबूत दस्तावेज और गवाह कहेंगे किंतु तुम निर्णय से पहले मुझे सच सच बताओ कि क्या तुमने कभी कोई हत्या की है?

 हत्यारा बोला हां जज साहब इससे पहले मैंने दो खून किए हैं किंतु उस वक्त मैंने उनको खून करने के बाद अच्छे वकीलों को सेवा में लिया था जिसके कारण मैं उस सजा से बरी हो गया और स्वतंत्र हो गया किंतु इस बार मैं निश्चित रूप से सत्य कहता हूं मेने खून नहीं किया मैंने यह हत्या नहीं कि मैं निर्दोष हूं मैं निर्दोष हूं। 

मैं निर्दोष हूं मैं निर्दोष हूं की गुहार लगाता हुआ वह व्यक्ति जोर-जोर से रोने लगा चिखने चिल्लाने लगा गिड़गिड़ा कर, फूट-फूट कर रोने लगा। 

सेशन जज अपने चेंबर में बैठ गए और ईश्वर के कर्म विधान के बारे में सोचने लगे । सेशन जज मन ही मन यह बात समझ गए कि ईश्वर के कर्म विधान में कोई गफलत नहीं होती । निश्चित ही यह व्यक्ति पहले दो खून करके बच चुका था। हो सकता है तब इसके भाग्य के खाते में कुछ पुण्य रहा होगा तभी वह इस पाप से बच गया।  किंतु जो कर्म इसने तब किए थे तब यह कर्म उसके क्रियामान कर्म कहलाए होंगे किंतु तब इस कर्म का फल उसे नहीं मिला और यह कर्म संचित कर्म में तब्दील हो गए और आज यह कर्म इसके प्रारब्ध के रूप में सामने आ गए और इसे प्रारब्ध के रूप में निर्दोष होते हुए भी इस हत्या का दोष लग रहा है क्योंकि वह संचित कर्म पक चुके हैं। 

कर्म के सिद्धांत में न कोई वकील की न कोई जज की न होशियारी चलती है और ना ही सिफारिश चलती है। यदि पाप करते वक्त हमें पाप की सजा नहीं मिल रही है तो आप यही समझिए कि उन पापों की सजा फल के रूप में जमा हो रही है और वह निश्चित ही भविष्य में हमारे सामने प्रस्तुत हो जाएंगी।  हमारे संचित कर्म हमारे प्रारब्ध के रूप में सामने आ ही जाते हैं और हमें फल देकर के ही शांत होते हैं। 

कर्म हो जाने के बाद हम उसके फल से छुटकारा नहीं पा सकते और उसके फल से छुटकारा पाने के लिए हमें इधर-उधर हाथ पांव भी नहीं मारने चाहिए, बल्कि जैसे ही हमने कर्म किया हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि इसका निश्चित परिणाम मुझे निश्चित समय पर भोगना ही पड़ेगा। उसे भोग करके ही  कर्म को नष्ट किया जा  सकता है ।  नहीं तो हंस हंस करके किए गए पाप को रो-रो कर के भोगने हीं पड़ेंगे।

धर्म कथा

THEORY OF KARMA

Posted on May 24, 2021May 28, 2021 By Pradeep Sharma

राजा दशरथ को जब पुत्र विरह से मृत्यु का श्राप मिला तब राजा दशरथ के एक भी संतान नहीं थी तो केसे राजा दशरथ को श्राप लगा ????

कर्म का सिद्धांत

बात अटपटी है! क्योंकि जीवन खुद अटपटा है।  एक व्यक्ति दुखी और दूसरा व्यक्ति सुखी?  सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि चोर, उचक्के, कालाबाजारी और लुटेरे सुखी दिखते हैं। उनके पास  गाड़ी, मोटर, रेडियो और पैसा सब कुछ होता है।  वहीं दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति जो न्याय नीति और धर्म में पवित्र जीवन जीते हैं वह दुखी दिखते हैं।  इसका कारण क्या है?  ऐसा क्यों होता है?  जब ऐसा प्रत्यक्ष रूप से इस सृष्टि में दिखाई पड़ता है तो एकाएक मन को ऐसा महसूस होता है कि ईश्वर है ही नहीं और ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा डगमगाने लगती हैं।  तब लगता है कि सृष्टि में सब कुछ ऐसे ही चल रहा है कोई विधान नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है। कोई कानून नहीं है।

किंतु मित्रों हकीकत यह नहीं है हकीकत यह है कि खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं है। इस बात को यथार्थ रूप से समझने के लिए कर्म के सिद्धांत  का अभ्यास करना बहुत जरूरी है। 

 

जिस प्रकार से  एक राष्ट्र को चलाने के लिए देश की सरकार के द्वारा कई विभाग स्थापित किए गए हैं जैसे एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट के लिए एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट है और चोरों को दंड देने के लिए अपराधियों को दंड देने के लिए एक उचित न्याय व्यवस्था है निर्माण आदि कार्य करने के लिए पीडब्ल्यूडी डिपार्टमेंट है ट्रांसपोर्टेशन करने के लिए रेलवे डिपार्टमेंट या अन्य कई  परिवहन डिपार्टमेंट है। और सबसे खास बात यह है कि सभी डिपार्टमेंट भारत के संविधान के अधीन अपने अपने नियमानुसार चलते हैं। ठीक इसी प्रकार परमपिता परमात्मा परमेश्वर ने इस सृष्टि का भी एक विधान बना रखा है और उसी विधान के अनुसार निश्चित रूप से नियमित रूप से प्रकृति कार्य करती है जैसे सूर्य का निश्चित नियम से गतिमान होना प्रकाशमान होना निश्चित नियम से पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चक्कर लगाती है और निश्चित नियमों के अनुसार ही तारे एवं नक्षत्र गतिमान होते हैं निश्चित नियमों के अनुसार ही बरसात होती है। जगत की उत्पत्ति और जगत की स्थिति को लयबध्द और व्यवस्थित रूप से बनाए रखने के लिए, एवं  सृष्टि के संचालन को बनाए रखने के लिए प्रकृति की सुव्यवस्थित एक विधि है एक विधान है उसी को हम कर्म का सिद्धांत कहते हैं। यह समग्र संसार कर्म के सिद्धांत के आधार पर बराबर व्यवस्थित रीति से चल रहा है जिसमें कोई भी गड़बड़ की गुंजाइश हमें नजर नहीं पड़ती। 

इस कर्म के सिद्धांत की एक खास खूबी या विशेषता  यह है कि दुनिया के तमाम  राष्ट्र के संविधान में कोई ना कोई अपवाद आपको जरूर मिलेगा किंतु कर्म के इस नैसर्गिक सिद्धांत में कोई भी अपवाद की गुंजाइश नहीं है। 

खुद भगवान श्री राम के पिता होने पर भी दशरथ को कर्म के सिद्धांत के अनुसार पुत्र के वियोग में और पुत्र के विरह में मृत्यु को भोगना पड़ा।  जिसमें खुद भगवान श्रीराम ने भी अपनी विवशता ही जाहिर की।  स्वयं भगवान होते हुए भी वह अपने इस विधान को बदल ना सके। वे सृष्टि के विधान को कह ना सके की मेरे पिता दशरथ की मृत्यु को  रोक दो क्योंकि मैं उनका पुत्र हूं।  स्वयं भगवान होते हुए भी दशरथ की मृत्यु को भगवान श्री राम रोक नहीं पाए। 

स्वयं भगवान निर्गुण निराकार शुद्ध ब्रह्म जब धरती पर सगुण साकार बनकर देह धारण कर पृथ्वी पर पधारते हैं तब वे स्वयं भी कर्म के सिद्धांत के प्रति बाध्य होते हैं। कर्म के सिद्धांत के अनुसार परिणाम व फल भोगने के लिए बाध्य होते हैं।  इसमें कोई गुंजाइश की बात नहीं।  कर्म के सिद्धांत में न कोई अंधेर है,  ना कोई देर है।  

 

चलिए दोस्तों अब हम समझते हैं कि कर्म का सिद्धांत क्या है और कर्म किस प्रकार काम करता है। 

कर्म मतलब क्या?

सामान्य और सरल भाषा में कर्म कि अगर व्याख्या की जाए तो कर्म का अर्थ होता है- क्रिया।  हम कोई भी क्रिया करते हैं तो वह कर्म कहलाता है।  जैसे खाना-पीना, नहाना, चलना, खड़े रहना, नौकरी करना, व्यापार करना विचार करना जो कुछ भी हम क्रिया करते हैं वह कर्म कहलाता है।  यह क्रिया हमारे मन और शरीर दोनों से हो सकती है इसलिए क्रिया मानसिक हो या शारीरिक हो कर्म के बंधन में अर्थात कर्म की परिभाषा में आ जाती है। 

हमारे मन अथवा शरीर के द्वारा क्रिया अर्थात कर्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है –

  1. क्रियमान कर्म संचित कर्म एवं 3. प्रारब्ध कर्म

क्रियमान कर्म 

मनुष्य के सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक वह जितने भी कर्म करता है उसे क्रियमान कर्म कहते हैं सोमवार से शनिवार तक महीने की 1 तारीख से आखिरी तारीख तक वह जो भी कर्म करता है वह सभी कर्म क्रियमान कर्म कहलाते हैं । 

क्रियमान कर्म की अपनी एक विशेषता यह है कि यह फल दिए बिना आपका पिंड नहीं छोड़ते।  यदि आपने किसी प्रकार की कोई क्रिया की है तो आपको उसका फल अवश्य ही मिलेगा।  उदाहरण स्वरूप आप ऐसा समझ सकते हैं कि आपको प्यास लगी आपने पानी पिया।  आपने पानी पिया तो आप की प्यास बुझ गई।  प्यास का बुझ जाना अपने आप में इस कर्म का फल होगा।  आपको भूख लगी आपने खाना खाया आपकी भूख मिट गई।  आपको नहाने की इच्छा हुई आपने नहा लिया आपका शरीर शुद्ध हो गया। क्रियमान कर्म का फल मिले बिना रहता नहीं। क्रियमान कर्म फल देकर के ही शांत होता है और उसका फल भोगना ही पड़ता है। 

लेकिन कई क्रियमान कर्म  ऐसे भी होते हैं जो कर्म को करने वाले को तत्काल फल नहीं देते। बल्कि उसके फल को मिलने में समय लगता है। ऐसे कर्म के फल को पकने में समय लगता है।  जब तक यह कच्चे रहते हैं यह कर्म फल आपके भाग्य में जमा रहते हैं और संचित हो जाते हैं इसलिए इस प्रकार के कर्मों को संचित कर्म कहते हैं। 

संचित कर्म 

मित्रों संचित कर्मों के बारे में जानने के लिए हम एक उदाहरण को समझते हैं।  हम पूरे सत्र अच्छी पढ़ाई करते हैं।  लेकिन आज अच्छी पढ़ाई की हुई का परिणाम कल ही नहीं आ जाता  बल्कि हम रोज पढ़ाई करते हैं तो उसका निश्चित फल होता है और उस फल को पकने में समय लगता है और समय आने पर उस फल को हमें प्राप्त करना होता है ठीक वैसे ही बहुत से कर्म ऐसे हैं जो तुरंत फल नहीं देते उनके फल को पकने में समय लगता है।

बाजरे की फसल को पकने में 120 दिन लगते हैं।  आम को फल देने में 5 वर्ष लगते हैं।  इसको इस प्रकार से समझो कि आज जैसे कि आपने पूरे दिन में छोकरी आई कि शो क्रियाओं में आपको 90 क्रियाओं का परिणाम तुरंत मिल गया और वह कर्म शांत हो गया किंतु 10 क्रिया अर्थात 10 कर्म अभी भी ऐसे हैं जिनको फल आपने लिया नहीं है तो निश्चित ही वह कर्म वह क्रियाएं आप के संचित कर्म में जमा हो जाएंगी और ऐसे संचित कर्मों की परिणाम आपको आने वाले कल में अवश्य मिलेगा। 

 

आपको एक पौराणिक कहानी का वर्णन करता हूं जिससे आप संचित कर्म को समझ सकेंगे-

राजा दशरथ ने श्रवण का जब वध किया तो विरह से व्याकुल और विरह में दुखी मरते-मरते श्रवण के माता पिता ने राजा दशरथ को श्राप दे दिया की तेरी मृत्यु भी ठीक इसी तरह से पुत्र के विरह  से होगी।  जबकि दोस्तों आपको जान करके हैरानी होगी कि राजा को जब यह श्राप लगा था तब राजा दशरथ के एक भी पुत्र नहीं था।  तो क्या इस कर्म की सजा या इस कर्म का फल राजा दशरथ को नहीं मिलेगा।  नहीं दोस्तों ऐसा नहीं है ईश्वर का विधान है कि प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल होता है और वह फल आपको अवश्य ही मिलता है इसलिए यह कर्म राजा दशरथ के संचित कर्मों में जमा हो गए, और निश्चित समयावधि बीत जाने के बाद राजा दशरथ के चार पुत्र हुए और वह बड़े हुए उनका विवाह हुआ और जब भगवान श्री राम का राज्याभिषेक होने जा रहा था तो सबसे पहले संचित कर्म फल देने के लिए तत्पर हुआ और संचित कर्म  राजा दशरथ को मृत्यु फल प्रदान  करके ही शांत हुआ। जिसके स्पर्श मात्र से सृष्टि में लोगों को जीवनदान मिल जाता है वह परात्पर परब्रह्म भगवान श्री राम अपने पिता को इस श्राप से मुक्त न कर सके।

 

दोस्तों आपने किसी से कुछ रुपए उधार लिए और उसे लौटाने का वादा किया फिर आप उसे पैसा लौटा नहीं पाए आपके उस मित्र ने आप पर अभियोग चलाया आप कोर्ट में गए तो कोर्ट में मजिस्ट्रेट ने आपको हुक्म दिया कि आप पैसा लौटाइए तब आपने यह महसूस करवा दिया मजिस्ट्रेट को, कि आपके पास एक फूटी कौड़ी नहीं है तो क्या मजिस्ट्रेट आपको बाध्य कर सकता है?  पैसा देने के लिए!  नहीं लेकिन मजिस्ट्रेट आपसे यह लिखित में आश्वासन लेगा की समय आने पर आप पैसा दे देंगे और वह लिखित आश्वासन आपके मित्र को मिल जाएगा। फिर आप उस स्थान से दूर कहीं जाकर के कोई नया व्यापार कर लेते हैं और नया व्यापार करके आप वहां से कुछ पैसा कमा लेते हैं तो आप क्या मानते हैं वह मित्र आपके पास आकर आपसे पैसा नहीं ले सकता? मित्र आपके पास आ करके पैसा ले सकता है।  वह लेगा या नहीं लेगा यह एक अलग बात है।  लेकिन वह आपके पास आ करके पैसा मांगने का अधिकारी है, क्योंकि उसके पास आपका लिखित आश्वासन है।  

ठीक मैं आपको यही समझाना चाहता हूं कि बहुत से कर्म हम करते हैं उसका एक निश्चित परिणाम होता है वह निश्चित परिणाम यदि हमने तुरंत प्रभाव से नहीं लिया होगा या हमें तुरंत नहीं मिला तो निश्चित ही वह परिणाम हमें कल अवश्य देगा इसे संचित कर्म कहते हैं। 

प्रारब्ध कर्म

दोस्तों ऐसे कर्म जो रोज करते हैं और जिनका फल हमें तुरंत मिल जाता है वह क्रियमान कर्म कहलाते हैं। जिन क्रियमान कर्मों का फल हमें तुरंत नहीं मिलता वह क्रियमान कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। जब हमारे संचित कर्म पककर के फल देने को तैयार हो जाते हैं तो उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं आदि अनादि काल से जन्म जन्मांतर के संचित कर्मों का फुल जब हमें मिलने लगता है तो हम इसे प्रारब्ध के कर्मों का फल कहते हैं। 

 

दोस्तों आज का यह ब्लॉक कर्म के सिद्धांत और कर्म के प्रकार को समझाता है अगले ब्लॉग में हम समझेंगे कि किया हुआ कर्म हमें फल अवश्य देता है कैसे………

धर्म कथा

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