Skip to content
  • Home
  • About
  • Privacy Policy
  • Fast and Festivals
  • Temples
  • Astrology
  • Panchang
  • Education
  • Business
  • Sahitya Sangrah
  • Daily Posts
www.121holyindia.in

www.121holyindia.in

THE HOLY TOUR & TRAVEL OF TEMPLES IN INDIA

Tag: #karma theory #theory of karma #karma aur kriya

Disposal of Karma

Posted on June 5, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

कर्म कि गती (कर्म का निपटान)

वह कौन से कर्म है जो हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते ?

  1. अबोधता एवं अज्ञानता की स्थिति में किए गए कर्म
  2. अचेतन अवस्था में किए गए कर्म
  3. मनुष्य को छोड़कर अन्य योनियों में किए गए कर्म
  4. मैं करता हूं के अभिमान को छोड़कर किए गए कर कर्म
  5. सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म
  6. निष्काम भावना से किए गए कर्म
  • अबोधता, अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए कर्म

बाल्यावस्था में किए गए कर्म और अचेतन अवस्था में किए गए कर्म या पागलपन में किए गए कर्म, राग द्वेष की प्रेरणा से नहीं किए गए थे अतः राग द्वेष की प्रेरणा के बिना इन कर्मों को संचित कर्मों में जमा नहीं होना पड़ता। यदि कोई छोटा बच्चा अग्नि में हाथ डाले तो वह जलेगा जरूर और कर्म तात्कालिक फल देगा। किंतु यही कर्म घूम कर वापस उसके संचित कर्मों में जमा नहीं होगा और दूसरी बार फल देने के लिए सामने नहीं आएगा।  3 वर्ष का छोटा बच्चा खाट में उछलता है, कूदता है और वहीं पर 3 वर्ष का अन्य बच्चा सो रहा है, यदि उसके गले पर उछलते हुए बच्चे का पांव लग जाए और वह बच्चा मर जाए तो उस 3 वर्ष के बच्चे पर इंडियन पेनल कोड की धारा 302 के मुताबिक हत्या का केस नहीं चल सकता, क्योंकि इस कर्म में कोई राग द्वेष नहीं था अतः इस प्रकार के कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते अतः शिशु अवस्था में किसी बच्चे ने किसी दस्तावेज पर कोई काम किया हो तो उसे कोर्ट मान्य नहीं करती।

मित्रों यहां ध्यान देने की बात है की अबोधता,अज्ञानता एवं अचेतन अवस्था में किए गए सभी क्रियामान कर्मों का तात्कालिक फल जरूर होता है। किंतु यह संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यह कर्म भविष्य में फल देने हेतु सामने प्रस्तुत नहीं होते बल्कि इनका जो भी परिणाम होता है वह तुरंत प्रभाव से हमें मिल जाता है। 

अर्थात मनुष्य का कोई भी ऐसा कर्म जो किसी प्रकार की राग द्वेष शक्ति इच्छा की भावना से जुड़ा हो वह कर्म संचित कर्म में संचित हो सकता है। वह भविष्य में फल देने के लिए आपके सामने प्रस्तुत हो सकता है।

  • मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य योनि में किए गए कर्म

मनुष्य योनि के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में किए गए कोई भी कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होते क्योंकि मनुष्य योनि के अतिरिक्त अन्य तमाम योनीया भोग योनीया कहलाती है।मनुष्य के अतिरिक्त अन्य योनियों में जीवात्मा अपने पूर्व संचित कर्मों को प्रारब्ध के रूप में भोग करके ही देह से छुटकारा पाती हैं।अतः इनके कोई भी नए क्रियामान कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

घोड़े, गधे, कुत्ते, बिल्ली, पशु-पक्षी, इत्यादि योनियों में जीव मात्र प्रकृति के अनुसार ही अपना जीवन जीते हैं इससे यह अपनी योनियों, में केवल और केवल प्रारब्ध कर्म को ही भोगते है।और इस प्रकार की योनियों में क्रिया मानकर्म तात्कालिक फल देते हैं।इससे यह बाद में संचित कर्म में जमा नहीं होते।उदाहरण स्वरूप गधा यदि किसी को लात मारे तो बदले में वह दो लकड़ी की फटकार खा लेता है ऐसा नहीं होता कि उसकी यह लात मारने की क्रिया संचित कर्मों में जमा हो जाएगी।यदि किसी खेत में पशु प्रवेश कर जाता है और फसल को नुकसान करता है तो बदले में खेत का मालिक उस पशु को लकड़ी से पीटकर भगा देता है पशु का खेत में प्रवेश करना जो कर्म है उसका तात्कालिक फल वह पा लेता है अतः उसका कोई भी कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होता। पशु पक्षी कीड़ा मकोड़ा मछली जलचर नभचर और कई प्रकार के जीव भोगयोनि ही कहलाते हैं।अतः इनके नए क्रियामान कर्म कभी भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।देव योनी भी एक प्रकार से भोग योनि ही है।देवता भी स्वयं के पुण्य कर्मों के आधार पर सुख भोगते हैं। देवताओं के क्रियामान कर्म भी संचित कर्मों में जमा नहीं होते।जिनके तमाम पाप नष्ट हो चुके हैं और जिनके सिलक में  मात्र पुण्य कर्म ही बचे हैं ऐसे जीव देव योनी में  जिसे आप भोगयोनी  कह सकते हैं, स्वर्ग में जाकर दिव्य भोग भोंगते हैं और पुण्य के क्षय होते ही मृत्यु लोक में वापस आ जाते हैं। 

  • मैं करता हूं कि अभिमान को छोड़कर किए गए कर्म

ऐसे कर्म हमेशा अकर्म बन जाते हैं। इस प्रकार के कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यदि आप अच्छे कर्म करते हैं तो उसे पुण्य कहेंगे और यदि आप बुरे कर्म करते हैं तो उसे आप पाप कह सकते हैं। पुण्य को भी भोगना पड़ता है और पाप को भी भोगना पड़ता है किंतु ऐसे कर्म जिसमें आपकी यह भावना ना हो कि यह आप कर रहे हैं तो ऐसे कर्मों को सुकृति कहते हैं अर्थात यह कर्म अकर्म कहलाते हैं। जब एक हत्या का अपराधी कोर्ट में आता है तब न्यायाधीश उस पर अभियोग का निर्णय सुनाते हैं और उसे फांसी की सजा दे दी जाती है। तब इसका मतलब यह नहीं कि उस फांसी की सजा का कोई कर्म बंधन उस जज पर लागू होगा, क्योंकि यहां पर जज के मन में यह भावना नहीं है कि यह काम मैं कर रहा हूं बल्कि यहां जज के मन में यह बात है कि यह कर्म एक विधान के आधार पर कर रहा हूं और विधान के लिए कर रहा हूं इस कर्म को विधान के द्वारा किया जा रहा है। अतः इस प्रकार के कर्मों का बंधन जज पर लागू नहीं होता ऐसे कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। यहां जज को ऐसा कोई मिथ्या अभिमान नहीं होता अतः जज इस कर्म के बंधन से मुक्त है यह कर्म जज के संचित कर्मों में जमा नहीं होता। 

अतः भगवान गीता में अर्जुन से कहते हैं कि तुम इस धर्म युद्ध में अनेकों संहार करोगे किंतु तुम पर यह कर्म बंधन लागू नहीं होगा क्योंकि तुम इन सभी का संहार सिर्फ यह सोचकर के करो कि तुम स्वयं करता नहीं हो अतः तुम इस कर्म के बंधन से मुक्त रहोगे।

मैं ही हूं अथवा मैं ही करता हूं के अभिमान से किए गए सभी कर्म कर्म बंधन में हमें बांधते हैं। ऐसे कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। किंतु ऐसी भावना के विरुद्ध यदि हम स्वयं को निमित मात्र समझें और फिर कर्म करें तो हमें सुकृति की प्राप्ति होगी । 

  • सृष्टि के कल्याण के लिए किए गए कर्म

इस संसार में ऐसे बहुत से कर्म है जो पाप कर्मों में होने के बावजूद क्योंकि वह जगत एवं सृष्टि के कल्याण के लिए होते हैं अतः ऐसे पाप कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। झूठ बोलना पाप कर्म समझा जाता है किंतु झूठ बोलना जब जरूरी हो तब ऐसा झूठ बोलना आपको पाप कर्म में लिप्त नहीं होने देता। तब यह कर्म संचित कर्म में जमा नहीं होता।भगवान होते हुए भी श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को धर्म युद्ध में धर्मराज को झूठ बोलने की प्रेरणा दी और कहा कि कहिए कि अश्वत्थामा मारा गया नरः या कुंजा तब युधिष्ठिर ने ऐसा कहा। इसमें श्री कृष्ण का स्वयं का कोई स्वार्थ नहीं था यदि पांडव जीत जाते तो उसमें कोई हिस्सा श्रीकृष्ण को नहीं मिलता। ना कोई कमीशन या दलाली मिलती। और इस झूठ को बोला जाए तो द्रोणाचार्य मर जाएगा मात्र ऐसा भी नहीं था। बल्कि इस झूठ से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा और इस धर्म युद्ध में धर्म की विजय होगी मात्र इस भावना के साथ यह झूठ बोला गया था।

हां इस झूठ बोलने से एक तात्कालिक परिणाम जरूर सामने आया कि इससे धर्मराज युधिष्ठिर की प्रतिष्ठा में राई के दाने जितनी खरोच लगी किंतु इस झूठ के प्रणेता श्री कृष्ण को इस कर्म का बंधन नहीं हुआ और न उन्हें इसका फल भोगने के लिए कोई पुनर्जन्म लेना पड़ा।

  • निष्काम भावना से किए गए कर्म

कामना से रहित किए गए कर्म संचित कर्मों में जमा नहीं होते। वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य जो कोई कर्म करता है तो निश्चित ही कोई कामना से, इच्छा से, या आशा से, अथवा अपेक्षा से ही करता है और उसमें उस व्यक्ति का दोष नहीं। मनुष्य फल की आशा, इच्छा, कामना रखे या ना रखे तो भी कर्म फल दिए बिना नहीं छोड़ता, ऐसा कर्म का सिद्धांत जान पड़ता है। किंतु फिर भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो कर्म तो करते हैं बावजूद कर्म के फल की कोई इच्छा नहीं रखते। यह बात बड़ी विचित्र है किंतु सच है जैसे मनुष्य पाप तो करता है परंतु उसके फल को पाने की इच्छा नहीं करता मनुष्य चोरी तो करता है, किंतु वह पुलिस से पकड़वाना नहीं चाहता, उसे रिश्वत लेनी है, किंतु रिश्वत लेते पकड़ा नहीं जाना, और उसका कोई फल या कोई सजा नहीं चाहता इसका अभिप्राय यह नहीं कि यह निष्काम कर्म हुए। मनुष्य को पाप करने की इच्छा होती है परंतु उसके फल को भोगने की इच्छा नहीं। मनुष्य को  केवल पुण्य कर्म का फल चाहिए, लेकिन पुण्य कर्म को करना नहीं चाहता और पाप कर्म को करने वाले को फल की कामना नहीं होती, तो इसे हम ऐसा नहीं कह सकते कि वह निष्काम भावना से कर्म कर रहा है, निष्काम कर्म का मतलब होता है शास्त्र से विहित कर्म, धर्म की मर्यादा में रहकर राग और द्वेष की प्रेरणा के बिना, मैं करता हूं के अभिमान के बिना सृष्टि के कल्याण के लिए स्वयं के नीज स्वार्थ को छोड़कर किए गए काम निष्काम भावना से कर्म कहलाते हैं। एक मां अपनी संतान की परवरिश और सार संभाल जो करती हैं वह निष्काम भावना से किए गए कर्मों की श्रेणी में आते हैं ।शास्त्र सम्मत ऐसा कोई भी काम या कर्म जिसके फल की आशा न हो किंतु उसे हम कर रहे हैं वह सभी काम निष्काम भाव से किए गए काम या कर्म कहलाते हैं।इस प्रकार के कर्म भी हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते।

कर्तव्य बोध से किए गए सभी कर्म जिसमें फल की कोई आशा अपेक्षा इच्छा हो ऐसे सभी कर्म  निष्काम भावना से किए गए कर्म कहलाते हैं। और ऐसे कर्मों का बंधन हम पर लागू नहीं होता। यह कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा नहीं होते। 

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

SABHI KARMA KRIYA HOTE HAI PAR SABHI KRIYA KARMA NAHI HOTE

Posted on May 29, 2021June 27, 2021 By Pradeep Sharma

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

क्रिया और कर्म इन दोनों शब्दों में भेद को विशेष रूप से समझना जरूरी है। शारीरिक क्रिया को देखा जा सकता है। परंतु मानसिक क्रिया को देख पाना मुश्किल है।

क्रिया के तीन प्रकार हो सकते हैं। 

1. केवल शारीरिक क्रिया 

2. केवल मानसिक क्रिया 

3. मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया

  1. शारीरिक क्रिया दो प्रकार की होती है- 

1.अनैच्छिक शारीरिक क्रियाएं और 2.ऐच्छिक शारीरिक क्रियाएं

शरीर की बहुत सी क्रियाएं ऐसी होती हैं जो तब भी संपादित होती ही है जब इस प्रकार की कोई इच्छा ना भी करें तो ऐसी क्रियाओं को अनैच्छिक क्रिया कहते हैं।

जैसे आपके ह्रदय की धड़कनों का चलना जैसे आपके श्वास लेने की क्रिया का होना, जैसे आपके पाचन क्रिया का होना, जैसे आपकी आंखों की पलकों का झपकना, यह सब क्रियाएं वह क्रियाएं हैं जो आपकी इच्छा ना हो तो भी निरंतर आपके शरीर से होती है इसे आप रोक नहीं सकते यदि आप इन क्रियाओं को रोकने का प्रयास करेंगे तो हो सकता है कि आप की मृत्यु हो जाए।

शरीर कितनी ही क्रियाए हमारी इच्छा से करता है| उदाहरण के लिए हाथ को खड़ा करना, पांव को लंबा करना, एक पाव पर खड़े रहना, सिर के बल खड़े रहना, दौड़ना, कूदना इत्यादि और कितनी ही क्रियाएं हमारी इच्छा के बिना करता है जैसे हृदय का धड़कना, श्वास-लेना, रक्त धमनियों में रक्त का प्रवाह होना|इन सभी एच्छिक और अनेछिक क्रियाओं में जहां हमारा मन शामिल नहीं होता, और मन को इन क्रियाओं के प्रति कोई राग द्वेष नहीं होता इसलिए गीता की भाषा में इसे कर्म नहीं कहा जा सकता|

  1.  मानसिक क्रिया:

कितनी ही क्रियाओं को आप केवल मन से ही करते हैं| और उन क्रियाओं को शरीर नहीं करता| उदाहरण के लिए आप मन में कोई विचार करते हो| मन में यदि किसी के लिए भला अथवा बुरा सोचते हो या किसी को गाली देते हो| यह सभी मानसिक क्रिया जब तक शारीरिक क्रिया में परिणित ना हो तब तक यह केवल मानसिक क्रिया के रूप में ही रहती है| और इस प्रकार से यह क्रिया कर्म की व्याख्या में नहीं आ सकती| क्रिया के भीतर कोई उद्देश्य या अहंकार शामिल हो तभी वह कर्म बनता है|

अपने मन में कोई गुनाह करने का विचार किया, किसी को थप्पड़ मारने का विचार किया किंतु जब तक शारीरिक रूप से आपका हाथ उस व्यक्ति के गाल के ऊपर तमाचा ना मार दे तब तक यह कर्म गुनाह नहीं बनता| इसलिए फोजदारी कानून में सरकार ने एक प्रोविजन रखा है-

Intention to commit an offence is not an offence.

 अपराध करने मात्र का इरादा (मानसिक क्रिया) जो कि अपराध (कर्म) नहीं कहा जा सकता|किसी भी वकील से इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि अपराध करने का विचार करना अपराध करना नहीं होता|

यह फौजदारी कानून कलियुग में लिखा हुआ है इसलिए कलयुग का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी भी रामायण में कहते हैं कि-

“कलियुग कर यह पुनीता प्रतापा, मानस पुण्य होई नहीं पापा |”  

(उत्तरकाण्ड -103)

कलयुग में मानसिक पुण्य करो तो पुण्य होगा किंतु केवल मानसिक पाप करो तो पाप नहीं होगा इसका अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य को मानसिक पाप करने की छूट है|

कहने का अभिप्राय यह है कि कलियुग में मनुष्य के मानसिक पाप का त्याग किया जा सकता है| यदि क्षण भर के लिए मन में कदाचित अपराध का विचार आए तो उसका त्याग किया जा सकता है| उसे शारीरिक कर्म में बदलने से पहले अगर हम त्याग देते हैं और इश्वर से क्षमा प्रार्थना कर ले तो निश्चित ही हम मानसिक पाप से मुक्त हो सकते है| 

शास्त्र कहते हैं कि इस प्रकार की व्यवस्था केवल कलियुग में ही है ऐसी व्यवस्था सतयुग में नहीं होती है|

लेकिन कोई व्यक्ति जानबूझकर मानसिक पाप करता है और निरंतर मानसिक प्राप्त करता रहता है| तो एक समय ऐसा जरूर आता है जब उसका मानसिक पाप उसके शरीर को धक्का देकर अनिवार्य रूप से शारीरिक पाप  क्रिया में लिप्त कर देता है और वह शारीरिक क्रिया कर्म बन जाती है अतः वह कर्म क्रियामान कर्म अथवा संचित कर्म में जमा होकर प्रारब्ध बनकर छाती के सामने आकर खड़ा हो जाता है| फिर हंसते हंसते किए गए पाप को मनुष्य को रोते-रोते भोगना पड़ता है, इस से छूटने का और कोई विकल्प या उपाय नहीं होता बल्कि इसे भोगना ही पड़ता है|

  1.  मानसिक के साथ-साथ शारीरिक क्रिया-

मन की कामनाओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए, राग और द्वेष से प्रेरित होकर और स्वार्थ पूर्ति के लिए की गई तमाम शारीरिक क्रियाओं को कर्म कहा जाएगा और इस प्रकार के क्रियामान कर्मों को पाप-पुण्य अथवा  सुख और दुख के रूप में भुगतना ही पड़ेगा|

इस प्रकार के क्रियमाण कर्म हो सकता है तात्कालिक फल ना दें| यह भी हो सकता है कि यह संचित कर्मों में जमा हो जाए, और प्रारब्ध बनकर हमें कर्म का फल देने के बाद ही शांत हो|

किसी भी क्रिया को अच्छी या बुरी नहीं कहा जा सकता| कोई भी क्रिया अच्छे अथवा बुरी नहीं होती क्रिया तो बस क्रिया ही होती है| परंतु जब मन में अहंकार, राग, द्वेष और कामना अथवा वासना आ जाए तब उस क्रिया को कर्म कहा जाता है| और इस प्रकार के कर्म अच्छे या बुरे कहलाए जा सकते हैं, जिसके परिणाम स्वरूप पुण्य अथवा पाप का बंधन बंध जाता है| जिसके फलस्वरूप हमें सुख अथवा दुख भोगने के लिए देह को धारण करना ही पड़ता है और जन्म मरण के चक्कर में हम बंध जाते हैं| संपूर्ण सृष्टि में कर्म के फल का विधान है, ना की क्रिया के फल का| एक अज्ञानी शिशु छोटे-छोटे जंतुओं को मार देता है तब उसकी यह क्रिया कहलाती है इसे कर्म के कायदे के बीच बांधा नहीं जा सकता| मनुष्य अनजाने में जीव जंतुओं की हिंसा कर लेता है पानी,दूध,सब्जी,अनाज,सांस लेने और छोड़ने में असंख्य जीव जंतुओं की हिस्सा हो जाती है| किंतु उन सब के पीछे हमारे मन की राग-द्वेष या आसक्ति  नहीं होती है इसलिए ये क्रियाये हमारे कर्मों में तब्दील नहीं होती इसलिए हम उसे हिंसा नहीं कह सकते|

सारांश-

प्रत्येक कर्म क्रिया है किंतु प्रत्येक क्रिया कर्म नहीं।

कर्म के अस्तित्व के लिए क्रिया का होना आवश्यक है| क्रिया मन से, शरीर से, अथवा दोनों से हो सकती है| कलियुग में कोई भी क्रिया जिसे शारीरिक रूप से संपादित नहीं किया उसके कर्म के बंधन में हम नहीं बंधते,  वहां कर्म का बंधन नहीं लगता| किंतु कोई भी क्रिया मन तथा शरीर दोनों से संपादित हो जाती है तब वह क्रिया कर्म में परिवर्तित हो जाती है और उस पर कर्म का बंधन लागू हो जाता है |

कुशलता और अभिप्रेरणा, धर्म कथा

Copyright © 2023 www.121holyindia.in.

Powered by PressBook WordPress theme