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Tag: skill and motivation

DestinyV/s Efforts

Posted on May 28, 2021August 10, 2021 By Pradeep Sharma

प्रारब्ध बनाम पुरुषार्थ

DestinyV/s Efforts

मनुष्य को पुरुषार्थ नहीं करना चाहिए?

कर्म के सिद्धांत में पुरुषार्थ का अर्थ ठीक से समझे बिना कितने ही प्रारब्धवादी ऐसा मान बैठे हैं, कि मनुष्य को कोई भी पुरुषार्थ करने की जरूरत नहीं |प्रारब्ध में होगा तो अवश्य ही मिलेगा| परीक्षा में पास होने का प्रारब्ध होगा तो जरूर पास होंगे|अन्यथा कितनी ही मेहनत कर लो यदि फेल होने का प्रारब्ध होगा तो फेल ही होंगे इसलिए पढ़ाई लिखाई करने की तकलीफ लेने की जरूरत नहीं| ऐसी नासमझी के कारण न जाने कितने प्रारब्धवादी विद्यार्थी अपने जीवन को भगवान के ऊपर छोड़ देते हैं| एक पक्का प्रारब्धवादी विद्यार्थी जिसने संस्कृत का अभ्यास किया है या नहीं किया यह तो नहीं जानते किंतु संस्कृत भाषा में त्रुटि पूर्ण रूप से एक डायलॉग बोलता है –

पठतव्यम सो भी मर्तव्यम एवं न  पठतव्यम सो भी मर्तव्यम| तो फीर माथापची क्यों कर्तव्यम ?

ऐसे मूर्ख प्रारब्धवादियो ने पुरुषार्थ के सही अर्थ को समझा ही नहीं| परंतु कहां प्रारब्ध को महत्व देना है और कहां पुरुषार्थ को महत्व देना है इसका ज्ञान मनुष्य को अच्छे से समझ लेना चाहिए| आपको नौकरी मिली यह आप का प्रारब्ध हो सकता है पर आप ने नौकरी को किस नियति से की? यहां आपका पुरुषार्थ ही होगा| आपको अच्छा घर मिला पर आप घर में किस प्रकार से रहे या आपका पुरुषार्थ होगा| आपको धन मिला किंतु धन का आपने उपयोग किस प्रकार किया यह आपका पुरुषार्थ होगा| आपको संतान प्राप्ति हुई पर संतान की परवरिश आपने किस प्रकार की यह आपका पुरुषार्थ होगा| 

प्रारब्ध और पुरुषार्थ एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक

आज जो क्रियमान कर्म हम कर रहे हैं वह संचित कर्म में जमा हो जाता है और एक समय के बाद वह पककर हमारे सामने प्रारब्ध बन कर आ जाता है |  उसी प्रारब्ध को भोगने के लिए वैसा ही शरीर हमें प्राप्त होता है| इसलिए सच तो यह है कि पुरुषार्थ ही एक समय के बाद प्रारब्ध बनता है तो इस प्रकार से प्रारब्ध पुरुषार्थ का विरोधी नहीं है बल्कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ एक ही है| प्रारब्ध वर्तमान शरीर को भोग प्रदान करता है वही पुरुषार्थ मनुष्य की भविष्य की सृष्टि तैयार करता है| पुरुषार्थ ही आगे चलकर प्रारब्ध बनता है तभी अंग्रेजी में एक कहावत है-

Man is the Architect of his own fortune.

एक अंधे और लंगड़े की दोस्ती के रिश्ते के समान ही प्रारब्ध और पुरुषार्थ का रिश्ता रिश्ता होता है| अंधे को रास्ता दिखता नहीं है और लंगड़ा उस रास्ते पर चल नहीं सकता इससे दोनों ही रास्ते पर अपनी यात्रा सुगमता से नहीं कर सकते| परंतु दोनों मित्रों ने विवेक और बुद्धि का प्रयोग कीया| अंधे व्यक्ति ने लंगड़े व्यक्ति को अपने कंधे पर बिठा लिया| लंगड़े व्यक्ति ने अंधे को रास्ता बताना शुरू किया और दोनों चल पड़े इस प्रकार दोनों ने रास्ते की यात्रा को सफलतापूर्वक पूरा किया|

जीवन यात्रा को भी सफलतापूर्वक पूरी करने के लिए पुरुषार्थ और प्रारब्ध एक दूसरे के पूरक बनते हैं|आप अपने स्वयं के प्रारब्ध से सुख और दुख को भोंगते हो|

अन्य कोई भी व्यक्ति आपको सुखी या दुखी नहीं कर सकता वह तो सिर्फ निमित्त मात्र है|

सुखस्य दुःखस्य न कोडपि दाता परो ददाति इति कुबुध्दिरेषा । 

अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रग्रथितो हि लोकः

हम पुरुषार्थ के माध्यम से अपने प्रारब्ध को ठीक कर सकते हैं| अंत में सारांश रूप से कहा जा सकता है कि पुरुषार्थ का अर्थ हुआ कि प्रारब्ध से जो कुछ हमें मिला हम उसका सम्मान करें और अपने वर्तमान जीवन में श्रेष्ठ पुरुषार्थ को धारण कर अपने नए भविष्य का व नये प्रारब्ध का नया निर्माण करें| अपनी तमाम इच्छाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य का क्रियाशील रहना पुरुषार्थ की ही एक परिभाषा है| मुख्य रुप से मनुष्य के जीवन में चार इच्छाएं होती है –

  1. धर्म
  2. अर्थ
  3. काम
  4. मोक्ष 

 हमे सदैव धर्म से ही अर्थ की प्राप्ति करनी चाहिए| ध्यान देने की बात यह है कि यहां धर्म की परिभाषा उससे भिन्न है जो आप समझते जिसकी चर्चा हम अपने अगले परिवेश में करेंन्गे | अधर्म से प्राप्त किया गया अर्थ अनर्थ बन जाता है| धर्म और मोक्ष के लिए हमें निरंतर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए धर्म और मोक्ष को कभी भी प्रारब्ध के ऊपर नहीं छोड़ना चाहिए बल्कि अर्थ और काम की प्राप्ति को मनुष्य प्रारब्ध पर छोड़ दे तो ज्यादा बेहतर होता है| अर्थ एवं काम की इच्छा पूर्ति के लिए विशेष पुरुषार्थ करने की कोई आवश्यकता नहीं| यह वह इच्छाएं हैं जो प्रत्येक योनि में प्रत्येक जीवात्मा की होती हैं और जिसकी पूर्ति प्रत्येक जीवात्मा को मिलती है, किंतु प्रत्येक योनि में धर्म और मोक्ष की इच्छा पूर्ति करने के लिए पुरुषार्थ की कोई उपस्थिति दिखाई नहीं पड़ती केवल मनुष्य योनि में ही हम पुरुषार्थ करके धर्म और मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं| काम की इच्छा की पूर्ति तो प्रत्येक जंतु व प्राणी स्वत ही कर लेता है उसके लिए कोई विशेष प्रयास या पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं पड़ती| 

परंतु हम सभी उल्टी दिशा में ही कार्यरत हैं| अर्थ और काम प्रारब्ध पर छोड़ देने के बदले हम दिन रात निरंतर काम और अर्थ की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ कर रहे हैं| अंततोगत्वा हम प्रारब्ध के आगे आकर ढीले पड़ जाते हैं| जहां धर्म और मोक्ष की प्राप्ति के लिए हमेशा सतत जागृत रहकर के पुरुषार्थ करने की आवश्यकता होती है वहां हम उन्हें प्रारब्ध पर छोड़ देते हैं|

जब हम इन चारों इच्छाओं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में सामंजस्य स्थापित करते हैं| प्रारब्ध तथा पुरुषार्थ में समन्वय स्थापित करके जीवन यात्रा करते हैं तभी हमारा जीवन सफल होता है और हम अन्य योनियों से भिन्न कहलाते हैं| यदि हमारे जीवन में केवल और केवल अर्थ तथा काम की इच्छा होती है तो हमारा जीवन भी उन पशुओं की भांति ही है जो अपनी संपूर्ण जीवनलीला में केवल और केवल अर्थ एवं काम में लिप्त होते हैं यहां अर्थ का अभिप्राय धन से नहीं बल्कि जीवन जीने के लिए खाद्य सामग्री जुटाने से है जो कि प्रत्येक जल तो प्रत्येक जानवर करता है| 

कुशलता और अभिप्रेरणा

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