राजा दशरथ को जब पुत्र विरह से मृत्यु का श्राप मिला तब राजा दशरथ के एक भी संतान नहीं थी तो केसे राजा दशरथ को श्राप लगा ????
कर्म का सिद्धांत
बात अटपटी है! क्योंकि जीवन खुद अटपटा है। एक व्यक्ति दुखी और दूसरा व्यक्ति सुखी? सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि चोर, उचक्के, कालाबाजारी और लुटेरे सुखी दिखते हैं। उनके पास गाड़ी, मोटर, रेडियो और पैसा सब कुछ होता है। वहीं दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति जो न्याय नीति और धर्म में पवित्र जीवन जीते हैं वह दुखी दिखते हैं। इसका कारण क्या है? ऐसा क्यों होता है? जब ऐसा प्रत्यक्ष रूप से इस सृष्टि में दिखाई पड़ता है तो एकाएक मन को ऐसा महसूस होता है कि ईश्वर है ही नहीं और ईश्वर के प्रति हमारी श्रद्धा डगमगाने लगती हैं। तब लगता है कि सृष्टि में सब कुछ ऐसे ही चल रहा है कोई विधान नहीं है। कोई ईश्वर नहीं है। कोई कानून नहीं है।
किंतु मित्रों हकीकत यह नहीं है हकीकत यह है कि खुदा के घर देर है, अंधेर नहीं है। इस बात को यथार्थ रूप से समझने के लिए कर्म के सिद्धांत का अभ्यास करना बहुत जरूरी है।
जिस प्रकार से एक राष्ट्र को चलाने के लिए देश की सरकार के द्वारा कई विभाग स्थापित किए गए हैं जैसे एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट के लिए एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट है और चोरों को दंड देने के लिए अपराधियों को दंड देने के लिए एक उचित न्याय व्यवस्था है निर्माण आदि कार्य करने के लिए पीडब्ल्यूडी डिपार्टमेंट है ट्रांसपोर्टेशन करने के लिए रेलवे डिपार्टमेंट या अन्य कई परिवहन डिपार्टमेंट है। और सबसे खास बात यह है कि सभी डिपार्टमेंट भारत के संविधान के अधीन अपने अपने नियमानुसार चलते हैं। ठीक इसी प्रकार परमपिता परमात्मा परमेश्वर ने इस सृष्टि का भी एक विधान बना रखा है और उसी विधान के अनुसार निश्चित रूप से नियमित रूप से प्रकृति कार्य करती है जैसे सूर्य का निश्चित नियम से गतिमान होना प्रकाशमान होना निश्चित नियम से पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य के चक्कर लगाती है और निश्चित नियमों के अनुसार ही तारे एवं नक्षत्र गतिमान होते हैं निश्चित नियमों के अनुसार ही बरसात होती है। जगत की उत्पत्ति और जगत की स्थिति को लयबध्द और व्यवस्थित रूप से बनाए रखने के लिए, एवं सृष्टि के संचालन को बनाए रखने के लिए प्रकृति की सुव्यवस्थित एक विधि है एक विधान है उसी को हम कर्म का सिद्धांत कहते हैं। यह समग्र संसार कर्म के सिद्धांत के आधार पर बराबर व्यवस्थित रीति से चल रहा है जिसमें कोई भी गड़बड़ की गुंजाइश हमें नजर नहीं पड़ती।
इस कर्म के सिद्धांत की एक खास खूबी या विशेषता यह है कि दुनिया के तमाम राष्ट्र के संविधान में कोई ना कोई अपवाद आपको जरूर मिलेगा किंतु कर्म के इस नैसर्गिक सिद्धांत में कोई भी अपवाद की गुंजाइश नहीं है।
खुद भगवान श्री राम के पिता होने पर भी दशरथ को कर्म के सिद्धांत के अनुसार पुत्र के वियोग में और पुत्र के विरह में मृत्यु को भोगना पड़ा। जिसमें खुद भगवान श्रीराम ने भी अपनी विवशता ही जाहिर की। स्वयं भगवान होते हुए भी वह अपने इस विधान को बदल ना सके। वे सृष्टि के विधान को कह ना सके की मेरे पिता दशरथ की मृत्यु को रोक दो क्योंकि मैं उनका पुत्र हूं। स्वयं भगवान होते हुए भी दशरथ की मृत्यु को भगवान श्री राम रोक नहीं पाए।
स्वयं भगवान निर्गुण निराकार शुद्ध ब्रह्म जब धरती पर सगुण साकार बनकर देह धारण कर पृथ्वी पर पधारते हैं तब वे स्वयं भी कर्म के सिद्धांत के प्रति बाध्य होते हैं। कर्म के सिद्धांत के अनुसार परिणाम व फल भोगने के लिए बाध्य होते हैं। इसमें कोई गुंजाइश की बात नहीं। कर्म के सिद्धांत में न कोई अंधेर है, ना कोई देर है।
चलिए दोस्तों अब हम समझते हैं कि कर्म का सिद्धांत क्या है और कर्म किस प्रकार काम करता है।
कर्म मतलब क्या?
सामान्य और सरल भाषा में कर्म कि अगर व्याख्या की जाए तो कर्म का अर्थ होता है- क्रिया। हम कोई भी क्रिया करते हैं तो वह कर्म कहलाता है। जैसे खाना-पीना, नहाना, चलना, खड़े रहना, नौकरी करना, व्यापार करना विचार करना जो कुछ भी हम क्रिया करते हैं वह कर्म कहलाता है। यह क्रिया हमारे मन और शरीर दोनों से हो सकती है इसलिए क्रिया मानसिक हो या शारीरिक हो कर्म के बंधन में अर्थात कर्म की परिभाषा में आ जाती है।
हमारे मन अथवा शरीर के द्वारा क्रिया अर्थात कर्म को तीन भागों में बांटा जा सकता है –
- क्रियमान कर्म संचित कर्म एवं 3. प्रारब्ध कर्म
क्रियमान कर्म
मनुष्य के सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक वह जितने भी कर्म करता है उसे क्रियमान कर्म कहते हैं सोमवार से शनिवार तक महीने की 1 तारीख से आखिरी तारीख तक वह जो भी कर्म करता है वह सभी कर्म क्रियमान कर्म कहलाते हैं ।
क्रियमान कर्म की अपनी एक विशेषता यह है कि यह फल दिए बिना आपका पिंड नहीं छोड़ते। यदि आपने किसी प्रकार की कोई क्रिया की है तो आपको उसका फल अवश्य ही मिलेगा। उदाहरण स्वरूप आप ऐसा समझ सकते हैं कि आपको प्यास लगी आपने पानी पिया। आपने पानी पिया तो आप की प्यास बुझ गई। प्यास का बुझ जाना अपने आप में इस कर्म का फल होगा। आपको भूख लगी आपने खाना खाया आपकी भूख मिट गई। आपको नहाने की इच्छा हुई आपने नहा लिया आपका शरीर शुद्ध हो गया। क्रियमान कर्म का फल मिले बिना रहता नहीं। क्रियमान कर्म फल देकर के ही शांत होता है और उसका फल भोगना ही पड़ता है।
लेकिन कई क्रियमान कर्म ऐसे भी होते हैं जो कर्म को करने वाले को तत्काल फल नहीं देते। बल्कि उसके फल को मिलने में समय लगता है। ऐसे कर्म के फल को पकने में समय लगता है। जब तक यह कच्चे रहते हैं यह कर्म फल आपके भाग्य में जमा रहते हैं और संचित हो जाते हैं इसलिए इस प्रकार के कर्मों को संचित कर्म कहते हैं।
संचित कर्म
मित्रों संचित कर्मों के बारे में जानने के लिए हम एक उदाहरण को समझते हैं। हम पूरे सत्र अच्छी पढ़ाई करते हैं। लेकिन आज अच्छी पढ़ाई की हुई का परिणाम कल ही नहीं आ जाता बल्कि हम रोज पढ़ाई करते हैं तो उसका निश्चित फल होता है और उस फल को पकने में समय लगता है और समय आने पर उस फल को हमें प्राप्त करना होता है ठीक वैसे ही बहुत से कर्म ऐसे हैं जो तुरंत फल नहीं देते उनके फल को पकने में समय लगता है।
बाजरे की फसल को पकने में 120 दिन लगते हैं। आम को फल देने में 5 वर्ष लगते हैं। इसको इस प्रकार से समझो कि आज जैसे कि आपने पूरे दिन में छोकरी आई कि शो क्रियाओं में आपको 90 क्रियाओं का परिणाम तुरंत मिल गया और वह कर्म शांत हो गया किंतु 10 क्रिया अर्थात 10 कर्म अभी भी ऐसे हैं जिनको फल आपने लिया नहीं है तो निश्चित ही वह कर्म वह क्रियाएं आप के संचित कर्म में जमा हो जाएंगी और ऐसे संचित कर्मों की परिणाम आपको आने वाले कल में अवश्य मिलेगा।
आपको एक पौराणिक कहानी का वर्णन करता हूं जिससे आप संचित कर्म को समझ सकेंगे-
राजा दशरथ ने श्रवण का जब वध किया तो विरह से व्याकुल और विरह में दुखी मरते-मरते श्रवण के माता पिता ने राजा दशरथ को श्राप दे दिया की तेरी मृत्यु भी ठीक इसी तरह से पुत्र के विरह से होगी। जबकि दोस्तों आपको जान करके हैरानी होगी कि राजा को जब यह श्राप लगा था तब राजा दशरथ के एक भी पुत्र नहीं था। तो क्या इस कर्म की सजा या इस कर्म का फल राजा दशरथ को नहीं मिलेगा। नहीं दोस्तों ऐसा नहीं है ईश्वर का विधान है कि प्रत्येक कर्म का एक निश्चित फल होता है और वह फल आपको अवश्य ही मिलता है इसलिए यह कर्म राजा दशरथ के संचित कर्मों में जमा हो गए, और निश्चित समयावधि बीत जाने के बाद राजा दशरथ के चार पुत्र हुए और वह बड़े हुए उनका विवाह हुआ और जब भगवान श्री राम का राज्याभिषेक होने जा रहा था तो सबसे पहले संचित कर्म फल देने के लिए तत्पर हुआ और संचित कर्म राजा दशरथ को मृत्यु फल प्रदान करके ही शांत हुआ। जिसके स्पर्श मात्र से सृष्टि में लोगों को जीवनदान मिल जाता है वह परात्पर परब्रह्म भगवान श्री राम अपने पिता को इस श्राप से मुक्त न कर सके।
दोस्तों आपने किसी से कुछ रुपए उधार लिए और उसे लौटाने का वादा किया फिर आप उसे पैसा लौटा नहीं पाए आपके उस मित्र ने आप पर अभियोग चलाया आप कोर्ट में गए तो कोर्ट में मजिस्ट्रेट ने आपको हुक्म दिया कि आप पैसा लौटाइए तब आपने यह महसूस करवा दिया मजिस्ट्रेट को, कि आपके पास एक फूटी कौड़ी नहीं है तो क्या मजिस्ट्रेट आपको बाध्य कर सकता है? पैसा देने के लिए! नहीं लेकिन मजिस्ट्रेट आपसे यह लिखित में आश्वासन लेगा की समय आने पर आप पैसा दे देंगे और वह लिखित आश्वासन आपके मित्र को मिल जाएगा। फिर आप उस स्थान से दूर कहीं जाकर के कोई नया व्यापार कर लेते हैं और नया व्यापार करके आप वहां से कुछ पैसा कमा लेते हैं तो आप क्या मानते हैं वह मित्र आपके पास आकर आपसे पैसा नहीं ले सकता? मित्र आपके पास आ करके पैसा ले सकता है। वह लेगा या नहीं लेगा यह एक अलग बात है। लेकिन वह आपके पास आ करके पैसा मांगने का अधिकारी है, क्योंकि उसके पास आपका लिखित आश्वासन है।
ठीक मैं आपको यही समझाना चाहता हूं कि बहुत से कर्म हम करते हैं उसका एक निश्चित परिणाम होता है वह निश्चित परिणाम यदि हमने तुरंत प्रभाव से नहीं लिया होगा या हमें तुरंत नहीं मिला तो निश्चित ही वह परिणाम हमें कल अवश्य देगा इसे संचित कर्म कहते हैं।
प्रारब्ध कर्म
दोस्तों ऐसे कर्म जो रोज करते हैं और जिनका फल हमें तुरंत मिल जाता है वह क्रियमान कर्म कहलाते हैं। जिन क्रियमान कर्मों का फल हमें तुरंत नहीं मिलता वह क्रियमान कर्म हमारे संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। जब हमारे संचित कर्म पककर के फल देने को तैयार हो जाते हैं तो उसे प्रारब्ध कर्म कहते हैं आदि अनादि काल से जन्म जन्मांतर के संचित कर्मों का फुल जब हमें मिलने लगता है तो हम इसे प्रारब्ध के कर्मों का फल कहते हैं।
दोस्तों आज का यह ब्लॉक कर्म के सिद्धांत और कर्म के प्रकार को समझाता है अगले ब्लॉग में हम समझेंगे कि किया हुआ कर्म हमें फल अवश्य देता है कैसे………