“हमे अपने कर्मो के कर्मफलों को भोगना ही पड़ता है”
कर्म किया और समझो कि उसका फल चिपक गया। तत्पश्चात उसको भोगने के अलावा और कोई छुटकारा नहीं होता । कर्म-फल से दूर भागने की कितनी भी कोशिश कर लो आपको कर्म का फल लेना ही होगा । कर्म आपको फल दिए बिना शांत नहीं होता । हो सकता है आप बहुत बुद्धिमान हो, हो सकता है दुनिया की कोर्ट में आप बहुत अच्छे बुद्धिजीवी वकील को अपने कार्य के लिए नियुक्त कर सकते हो । दुनिया की कोर्ट में आप बड़े से बड़ा कैसे जीत सकते हो । किंतु कुदरत की कोर्ट में जब आपकी हाजिरी लगेगी, तब वहां ना कोई वकील की दलील चलेगी और ना ही वहां कोई सिफारिश चलेगी ।
बहुत वर्षों के पहले की बात है मित्रों । मेरे एक मित्र हुआ करते थे – वह अपने समय में अहमदाबाद में कोर्ट के जज हुआ करते थे । चूँकि वह जाति से ब्राह्मण और प्रकांड विद्वान एवं वेद अभ्यासी थे तो उनका इश्वर से जुडी बातो में काफी रूचि रहती थी। मैं कुछ समय के लिए अहमदाबाद में रुका था जब मैं अपने निजी कार्य के लिए अहमदाबाद गया था। तो वहां एलिस ब्रिज एक जगह का नाम है, जहां साबरमती नदी के ऊपर एक ब्रिज बना हुआ है। ब्रिज के एक छोर पर एक होटल है जिसका नाम होटल एलिस है जिसके मालिक एक मुस्लिम तबके से आते हैं । उन दिनों मेरी उनके साथ भी बड़ी घनिष्ठ मित्रता हो चुकी थी । मैं रोज सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए साबरमती नदी के किनारे पर जाया करता था । वहीं पर मेरी मुलाकात सेशन कोर्ट के उस जज से हुई थी। क्योंकि वे अपने प्रोफेशन से रिटायर हो चुके थे और अपनी वृद्धावस्था के अंतिम दौर पर थे। एकाएक मेरी उनके साथ बातचीत होने लग गई तब ईश्वर की कर्म विधान के विषय में उनसे मेरी बातचीत हुई । उन्होंने अपने एक अनुभव को मेरे साथ साझा किया। वही अनुभव है आज आपके साथ साझा कर रहा हूँ –
हमेशा की तरह एक दिन सुबह दिन निकलने से पहले ही कुछ अंधेरे के समय जज साहब मॉर्निंग वॉक पर निकले थे और उस वक्त साबरमती नदी का किनारा इतना विकसित नहीं था जितना आज दिखाई पड़ता है। पर फिर भी प्रकृति प्रेमी नदी किनारे पर सुबह मॉर्निंग वॉक के लिए आया करते थे। जज साहब किसी पेड़ के नीचे बैठकर के योग प्राणायाम कर रहे थे तभी वहां एक व्यक्ति अंधेरे का फायदा उठाकर किसी अन्य व्यक्ति को पीछे से खंजर से वार करता है और वह व्यक्ति खंजर के वार से घायल होकर गिर पड़ता है। जिसने खंजर से वार किया था उस व्यक्ति को जज साहब पहचान लेते है। किंतु वह अपराधी वहां से भाग निकलता है।
मामला फिर पुलिस स्टेशन में पहुंचता है और पुलिस डिपार्टमेंट इस मामले पर कार्रवाई करती है। छह माह के पश्चात पुलिस अनुसंधान पूरा होता है। पुलिस के द्वारा एक अभियुक्त को पकड़ा जाता है और उसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है और उस पर अभियोग चलाया जाता है।
पुलिस डिपार्टमेंट के द्वारा अभियुक्त पर अभियोग चलाया जाता है और कई कानूनी दस्तावेज बतौर सबूत पेश किए जाते हैं जिससे यह साबित और सिद्ध होता है कि- ठीक वही व्यक्ति अपराधी है और उसी व्यक्ति ने ही अन्य व्यक्ति की हत्या की थी।
किंतु आश्चर्य की बात यह है कि सेशन जज इस बात को जानते थे कि वह व्यक्ति अपराधी नहीं हैं और वह व्यक्ति वास्तविक अपराधी ना होने के कारण सेशन जज निर्णय सुनाने में असमंजस में थे । धर्म संकट में थे । वे इस संशय में थे कि वह क्या करें क्योंकि सभी सबूत दस्तावेज और गवाह यह साबित करते थे कि वह खुनी, हत्यारा और दोषी है ।
सभी गवाह सबूत और दस्तावेज बनावटी थे। किंतु सेशन जज क्या कर सकते थे? सेशन जज इस बात के लिए मजबूर थे क्योंकि न्यायालय में निर्णय सबूत गवाह और बयानों के आधार पर होते हैं।
अब समय आ ही गया था निर्णय सुनाने को लेकिन सेशन जज ने अपनी आत्मा की तसल्ली करने के लिए निर्णय सुनाने से पहले उस अपराधी को अपने चेंबर में एकांत में बुलाया। वह व्यक्ति सेशन जज के चैंबर में जाता है वह जोर-जोर से गिड़गिड़ा कर रोता है और कहता है कि जज साहब मैंने खून नहीं किया है मैं अपराधी नहीं हूं मैं हत्यारा नहीं हूं और मैं इस खून का दोषी नहीं हूँ । तभी जज साहब भी यही कहते हैं कि हां मैं यह जानता हूं कि तुम हत्यारे नहीं हो तुम खुनी नहीं हो और यह खून तुमने नहीं किया है क्योंकि यह खून जिसने किया है उसे मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं।
जज ने उस व्यक्ति से बड़ी मार्मिकता से और भावनाओं से ओतप्रोत होकर एक बात कही कि देखो बच्चे निर्णय तो वही होगा जो सबूत दस्तावेज और गवाह कहेंगे किंतु तुम निर्णय से पहले मुझे सच सच बताओ कि क्या तुमने कभी कोई हत्या की है?
हत्यारा बोला हां जज साहब इससे पहले मैंने दो खून किए हैं किंतु उस वक्त मैंने उनको खून करने के बाद अच्छे वकीलों को सेवा में लिया था जिसके कारण मैं उस सजा से बरी हो गया और स्वतंत्र हो गया किंतु इस बार मैं निश्चित रूप से सत्य कहता हूं मेने खून नहीं किया मैंने यह हत्या नहीं कि मैं निर्दोष हूं मैं निर्दोष हूं।
मैं निर्दोष हूं मैं निर्दोष हूं की गुहार लगाता हुआ वह व्यक्ति जोर-जोर से रोने लगा चिखने चिल्लाने लगा गिड़गिड़ा कर, फूट-फूट कर रोने लगा।
सेशन जज अपने चेंबर में बैठ गए और ईश्वर के कर्म विधान के बारे में सोचने लगे । सेशन जज मन ही मन यह बात समझ गए कि ईश्वर के कर्म विधान में कोई गफलत नहीं होती । निश्चित ही यह व्यक्ति पहले दो खून करके बच चुका था। हो सकता है तब इसके भाग्य के खाते में कुछ पुण्य रहा होगा तभी वह इस पाप से बच गया। किंतु जो कर्म इसने तब किए थे तब यह कर्म उसके क्रियामान कर्म कहलाए होंगे किंतु तब इस कर्म का फल उसे नहीं मिला और यह कर्म संचित कर्म में तब्दील हो गए और आज यह कर्म इसके प्रारब्ध के रूप में सामने आ गए और इसे प्रारब्ध के रूप में निर्दोष होते हुए भी इस हत्या का दोष लग रहा है क्योंकि वह संचित कर्म पक चुके हैं।
कर्म के सिद्धांत में न कोई वकील की न कोई जज की न होशियारी चलती है और ना ही सिफारिश चलती है। यदि पाप करते वक्त हमें पाप की सजा नहीं मिल रही है तो आप यही समझिए कि उन पापों की सजा फल के रूप में जमा हो रही है और वह निश्चित ही भविष्य में हमारे सामने प्रस्तुत हो जाएंगी। हमारे संचित कर्म हमारे प्रारब्ध के रूप में सामने आ ही जाते हैं और हमें फल देकर के ही शांत होते हैं।
कर्म हो जाने के बाद हम उसके फल से छुटकारा नहीं पा सकते और उसके फल से छुटकारा पाने के लिए हमें इधर-उधर हाथ पांव भी नहीं मारने चाहिए, बल्कि जैसे ही हमने कर्म किया हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि इसका निश्चित परिणाम मुझे निश्चित समय पर भोगना ही पड़ेगा। उसे भोग करके ही कर्म को नष्ट किया जा सकता है । नहीं तो हंस हंस करके किए गए पाप को रो-रो कर के भोगने हीं पड़ेंगे।